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________________ योगद्दारे सरीरपरूवणाए परंपरोवणिघा ५, ६२८१, ) परूवणट्ठं पुध सुत्तारंभकरणादो । एवं दुगुणहीणं बुगुणहीणं जावुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ २७८ ॥ अवट्टिवगुणहाणिअद्धाणमिदि जाणावणट्ठ एवं निद्देसो कदो, अण्णहा तस्स निष्फलत्तप्पसंगादो । ( ३४९ एयपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरमंतोमुहुत्तं णाणापवेसगुणहाणि-ट्ठाणंतराणि संखेज्जा समया ॥ २७९ ॥ तदो अंतीमहत्तं गंतूण पदेसगं दुगुणहीणं होदि त्ति एदेण सुत्तेण जाणाविदस्स गुणहाणि अद्धाणपमाणस्स पुणो वि एत्थ परूवणा किमट्ठ कीरदे ? तत्तो णाणागुणहाणिसला गाणं पमाणमागच्छदित्ति जाणावणट्ठ कीरदे । तं जहा - अंतोमुहुत्तस्स जदि एगा गुणहाणिसलागा लब्भवि तो आहारसरीरेण सह अच्छणकालभंतरे केत्तियाओ लभामो त्ति प्रमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए संखेज्जाओ णाणागुणहाणिस लागाओ लब्भंति । नाणापदेसगुणहाणिट्ठाणंतराणि थोवाणि ॥ २८० ॥ कुदो ? संखेज्जत्तादो 1 एयपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरमसंखेज्जगुणं ॥ २८१ ॥ नहीं है । समाधान -- नहीं, क्योंकि, गुणहानिशलाकाओंके संख्यागत भेदका कथन करनेके लिए अलगसे सूत्रका आरम्भ किया है । 1 इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होने तक दुगुणा हीन दुगुणा हीन होता गया है | २७८ गुणहानिअध्वान अवस्थित है, इस बातका ज्ञात करानेके लिए ' एवं पदका निर्देश किया है, अन्यथा उसके निष्फल होनेका प्रसंग आता है । एक प्रदेश गुणहानिस्थानान्तर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है और नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर संख्यात समयप्रमाण है ।। २७९ ।। Jain Education International शंका--' उससे अंतर्मुहूर्त जाकर प्रदेशाग्र दुगुणा हीन होता है ' इस प्रकार इस सूत्र द्वारा गुणहानि अध्वान के प्रमाणका ज्ञान हो जाता है, इसलिए पुनः इसकी प्ररूपणा किसलिए करते हैं ? समाधान -- उससे नानागुणहानिशलाकाओंका प्रमाण आता है इस बातका ज्ञान करानेके लिए उसकी प्ररूपणा करते हैं । यथा- अंतर्मुहूर्तकी यदि एक गुणहानिशलाका प्राप्त होती है तो आहारकशरीर के साथ रहने के कालके भीतर वे कितनी प्राप्त होंगी, इस प्रकार फलराशिसे गुणित इच्छा राशि में प्रमाणराशिका भाग देने पर संख्यात नानागुणहानिशलाकायें प्राप्त होती हैं । नानाप्रदेश गुणहानिस्थानान्तर स्तोक हैं ।। २८० ॥ क्योंकि, उनका प्रमाण संख्यात है । उनसे एक प्रवेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणा है ।। २८१ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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