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________________ ४४८) छक्खंडागमे दम्गणा-खडं ( ५, ६, ५३५ जे दुसमयट्ठिदिवग्गणाए दवा ते विसेसहीणा अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा ॥ ५३५ ।। जे ओदइयभावेण दुसमयमच्छिण पारिणामियभावं गच्छंति ओरालियपोग्गला अणंतेहि विस्सासुवचएहि उचिदा तेसि मेलाविदसलागाओ असंखेज्जभागहीणाओ। एत्थ भागहारो एत्तिओ ति ण णव्वदे । एवं ति-च-पंच-छ-सत्त-अठ-व-दस-संखेज्ज-असंखेज्जसमयठिदिवग्गणाए दवा ते विसेसहीणा अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा ॥ ५३६ ॥ एत्थ तियादिसु सव्वत्थ समयद्विदिवग्गणाए दवा विसेसहीणा अणंतेहि विस्सा. सुवचएहि उवचिदा त्ति संबंधो कायव्वो। तं जहा- तिसमयद्विदिवग्गणाए दव्या दुसमयट्टिदिदव्यवग्गणसलाहितो असंखेज्ज० भागहीणा अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा । चदुसमयढिदिवग्गणाए दवा तिसमयटिदिदग्धवग्गणसलागाहि असंखे. भागहीणा अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा। एवं णिरंतरं असंखे०भागहाणी वत्तव्वा जाव असंखेज्जलोगमेत्तट्टाणेसु अंगुलस्त असंखे० भागमेत्तट्ठाणाणि सेसाणि त्ति । जो दो समय स्थितिवाली वर्गणाके द्रव्य हैं वे विशेष हीन हैं और अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित हैं ॥ ५३५ । जो औदयिकभावके साथ दो समय तक रहकर पारिणामिकभावको प्राप्त होते हैं वे औदारिक पुद्गल अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित हैं। उनकी मिलाकर इकट्ठी की गई शलाकायें असंख्यातभागहीन हैं। यहाँ पर भागहारका प्रमाण इतना है यह ज्ञात नहीं है। इस प्रकार तीन, चार, पाँच, छह, सात, आठ, नौ, दस, संख्यात और असंख्यात समय तक स्थित रहनेवाली वर्गणाके द्रव्य हैं वे विशेष हीन हैं और प्रत्येक अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित हैं ।। ५३६ ।। यहाँ पर सर्वत्र तीन आदि समयकी स्थितिवाली वर्गणाके द्रव्य विशेष हीन हैं और अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित हैं ऐसा संबंध करना चाहिए । यथा- तीन समयकी स्थितिवाली वर्गणाके द्रव्य दो समयकी स्थितिवाली द्रव्यवर्गणाओंकी शलाकाओंसे असंख्यातभागहीन हैं और अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित हैं। चार समयकी स्थितिवाली वर्गणाके द्रव्य तीन समयकी स्थितिवाली द्रव्यवर्गणाकी शलाकाओंसे असंख्यातभागहीन है और वे अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित हैं। इस प्रकार असंख्यात लोकप्रमाण स्थानोंमें अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थानोंके शेष रहने तक निरन्तररूपसे असंख्यातभागहानि कहनी चाहिए। 8 ता० प्रतो 'दव्वा ( तिसमयट्ठिदिदव्ववग्गण-) सलागाहि ' अ० का० प्रत्यो! — दवा सलागाहि' इति पाठः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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