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________________ ५, ६, ५३४ ) बघणाणुयोगदारे सरीरविस्सासुवत्रयपरूवणा ( ४४७ णिरंतरमंगलस्स असंखे० भागं गंतूण सलागाणं संखेज्जभागहाणी होदि । तदो संखेज्जभागहाणीए उवरि णिरंतर मंगलस्स असंखे० भागं गंतूण पुणो संखे० गुणहाणी होदि । तदो संखेज्जगणहाणीए उवरि णिरंतरमंगलस्स असंखे० भागं गंतूण असंखेज्जगुणहाणी होदि । तदो उवरि णिरंतरमसंखेज्जगुणहाणी अंगुलस्सर असंखे० भागं गच्छदि जाव खेत्तवियप्पाणं पज्जवसाणे ति । एवं चतुण्णं सरोराणं ॥ ५३३ ॥ जहा ओरालियसरीरस्स चउविहा खेत्तहाणी परूविदा तहा सेसचदुण्णं सरीराणं पि परूवेयध्वं, विसेसाभावादो। कालहाणिपरूवणदाए ओरालियसरीरस्स जे* एगसमयट्ठिदिवग्गणाए दव्वा ते बहुआ अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा (१५३४॥ ___ जे जीवादो अवेदा ओरालियणोकम्मपरमाण एयसमयमोदइयभावेण अच्छिय विदियसमए पारिणामियभावं गच्छति तेसि दृविदसलागाओ बहुगाओ ते च अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा, बंधणगुणस्स तत्थ अणंताविभागपडिच्छेदाणं संभवादो। भागहानिके निरन्तर रूपसे अंगलके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाने पर संख्यातभागहानि होती है। फिर आगे संख्यातभागहानिके निरन्तर रूपसे अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाने पर संख्यातगुणहानि होती है। फिर आगे सख्यातगुणहानिके निरन्तररूपसे अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाग स्थान जाने पर असंख्यातगुणहानि होती है। फिर आगे निरन्तररूपसे संख्यातगुणहानि अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान होकर क्षेत्रविकल्पोंके समाप्त होनेतक जाती है। इसी प्रकार चार शरीरोंकी क्षेत्रहानि कहनी चाहिए ॥ ५३३ ॥ जिस प्रकार औदारिकशरीरकी चार प्रकारको क्षेत्रहानि कही है उसी प्रकार शेष चार शरीरोंकी भी कहनी चाहिए, क्योंकि, उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। __कालहानिप्ररूपणाको अपेक्षा औदारिकशरीरके जो एक समय स्थितिवाले वर्गणाके द्रव्य हैं वे बहुत हैं और अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित हैं ।। ५३४ ।। जो जीवसे अवेद औदारिकशरीरनोकर्मपरमाणु एक समय तक औदयिक भावरूपसे रह कर दूसरे समयमें पारिणामिकभावको प्राप्त होते है उनकी स्थापित की गई शलाकायें बहुत हैं और वे अनन्त विनसोपचयोंसे उपचित हैं, क्योंकि, उनमें बन्धनगुणके अनन्त अविभागप्रतिच्छेद सम्भव हैं। आ० प्रती-हाणीए णिरंतर-' इति पाठा। .म० प्रतिपाठोऽयम् । प्रतिष ' गंतूण संखे०गणहाणी ' इति पाठः । ४ ता० प्रती '-गणहाणी (ए) असंखे० अ० का प्रत्यो। 'गणहाणीए असंखे० ' इति पाठः । * अ० प्रती 'जो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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