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________________ ४३२) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं ( ५, ६, ५०६ दसणादो । एत्थ सव्वजोवेहि अणंतगणतं पडि सरिसत्तं, ण संखाए । कुदो ? जहण्णअणुभागेण लग्गथोव विस्तासुवचयणिफणजहण्णपत्तेयसरीरवाणादोजहण्णाणु. भागादो अणंतगुणाणुभागेणागदविस्तासुवचयणिप्फण्णउक्कस्सपत्तेयसरीरवग्गणाए अणंतगुणत्तप्पसंगादो। कथं विस्तासुवचयाणमविभागपडिच्छेदसण्णा ? कज्जे कारणु' वयारादो । अविभागपडिच्छेदकज्जविस्तासुवचयाणं पि तव्ववएससिद्धीए । वग्गणपरूवणदाए अणंता अविभागपडिच्छेदा सव्वजीवेहि अणंतगुणा एया वग्गणा भवदि ॥ ५०६ ॥ जहण्णवग्गणाए उकस्सवग्गणाए अजहण्ण-अणुक्कस्सवग्गणाए अविभागपडिच्छेदाणं पमाणं सव्वजीवेहि अणंतगणमेतविस्सासुवचयाणमुवलंभादो । एवमणंताओ वग्गणाओ अभवसिद्धिएहि अगंतगुणा सिद्धाणमणंतभागो* ॥ ५०७ ॥ एत्तियाओ वग्गणाओ घेतण एगमोरालियसरीरद्वाणं होदि । एवमसंखेज्जलोगमेत्तसव्वट्ठाणाणं पत्तेयं पत्तेयं अभवसिद्धिएहि अणंतगुण-सिद्धाणमणंतभागमेत्तवग्गणाओ होति त्ति परूवेदव्वं । असंखज्जलोगमेत्तसव्वजोवरासीसु अटैकं पडि गुणगारसरूवेण यहाँ पर सब जीवोंसे अनन्तगुणत्वकी अपेक्षा समानता है, संख्याकी अपेक्षा नहीं, क्योंकि, जघन्य अनुभागके कारण लगे हए स्तोक विस्रसोपचयोंसे निष्पन्न जघन्य प्रत्येकशरीरवर्गणाकी अपेक्षा जघन्य अनुभागसे अनन्तगुणे अनुभागके कारण आये हुए विस्रसोपचयोंसे निष्पन्न उत्कृष्ट प्रत्येकशरीर वर्गणाके अनन्तगुणे होने का प्रसंग आता है । शंका-- विस्रसोपचयोंकी अविभागप्रतिच्छेद संज्ञा कैसे है ? समाधान-- कार्य में कारणका उपचार करनेसे अविभागप्रतिच्छेदोंके कार्यरूप विस्रसोपचयोंकी वह संज्ञा सिद्ध होती है । वर्गणाप्ररूपणाकी अपेक्षा सब जीवोंसे अनन्तगणे ऐसे अनन्त अविभागप्रतिच्छेदोंको एक वर्गणा होती है ॥ ५०६ ॥ __ यह जघन्य वर्गणा, उत्कृष्ट वर्गणा और अजघन्य अनुत्कृष्ट वर्गणाका प्रमाग है, क्योंकि, सब जीवोंसे अनन्तगुणे विस्रसोपचय परमाणु उपलब्ध होते हैं। इस प्रकार अभव्योंसे अनन्तगुणो और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण अनन्त वर्गणायें होती हैं ।। ५०७ ।। इतनी वर्गणाओंका आश्रय लेकर एक औदारिकशरीरस्थान होता है। इस प्रकार असंख्यात लोकप्रमाण सब स्थानोंकी अलग अलग अभव्योंसे अनन्तगुणी और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण वर्गणायें होती हैं ऐसा कथन करना चाहिए। अष्टांकके प्रति असंख्यात लोकप्रमाण सब जीवराशियों का० प्रतो'लग्ग थोवं ' इति पाठ'। ४ अ० प्रती -णिफण्णपत्तेयसरीरवग्गणादो 'इति पाठ:1 * ता० प्रती 'सिद्धाणमणंतभागा' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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