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________________ ५, ६, ५०९) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरविस्सासुवचयपरूवणा ( ४३३ पविट्ठासु वि वग्गणाओ अभवसिद्धिएहि अणंतगणाओ सिद्धाणमणंतभागमेत्ताओ चेव होंति, जहण्णवग्गणअविभागपडिच्छेदेहितो तत्थ जहण्णएगेगवग्गणाए सव्वजोवेहि अणंतगुणमेत्तअविभागपडिच्छेदुवलंभादो । फडुयपरूवणवाए अणंताओ वग्गणाओ अभवसिद्धिएहि अणंगणो सिद्धाणमणंतभागो तमेग फड़यं भवदि ॥ ५०८ ॥ एत्तियाहि चेव वग्गणाहि एगं फड्डयं होदि त्ति कुदो णवदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो । कि फड्डयं णाम ? जत्थ कमवड्ढी कमहाणी च दिस्सदि तं फड्डयं । को कमो ? पढमवग्गणादो बिदियवग्गणा जत्तिएण वड्डिदा तत्तियमेत्तेणेव अणंतरुवरिमवग्गणाए जा वड्ढी सो कमो णाम । जत्थ एसो कमो अस्थि तमेगं फड्डयं । एदम्हि कमे फिट्टे फड्डयंतरं होदि । एवं सव्वफड्डयाणं पि पत्तेयं पत्तेयं वत्तव्वं । एवमणंताणि फड्डयाणि अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमगंतभागो ॥ ५०९ ॥ एवडियाणि फड्डयाणि घेत्तूण एगेगमोरालियसरीरट्ठाणं होदि । एत्थ अणंत के गुणकाररूपसे प्रविष्ट होने पर भी वर्गणायें अभव्योंसे अनन्तगुणी और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण ही होती हैं, क्योंकि, जघन्य वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदोंसे वहाँ पर जघन्य एक एक वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद सब जीवोंसे अनन्तगुणे उपलब्ध होते हैं। स्पर्धकप्ररूपणाको अपेक्षा अभव्योंसे अनन्तगुणी और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण जो अनन्त वर्गणायें हैं वे मिलकर एक स्पर्धक होता है । ५०८ ॥ शंका-इतनी ही वर्गणायें मिलकर एक स्पर्धक होता है यह किस प्रमागसे जाना जाता है? समाधान- इसी सूत्रसे जाना जाता है। शंका-स्पर्धक किसे कहते हैं ? समाधान-जहाँ पर क्रमवृद्धि और क्रमहानि दिखाई देती है उसे स्पर्धक कहते हैं। शंका-क्रम क्या है ? समाधान-प्रथम वर्गणासे द्वितीय वर्गणा जितने अविभागप्रतिच्छेदोंसे वृद्धिको प्राप्त हुई है उतने ही अविभागप्रतिच्छेदोंसे जो अनन्तर उपरिम वर्गणामें वृद्धि है वह क्रम है । जहां पर यह क्रम हैं वह एक स्पर्धक है । इस क्रमके बिगड़ने पर दूसरा स्पर्धक प्रारम्भ होता है। इस प्रकार सब स्पर्धकोंका अलग अलग कथन करना चाहिए। इस प्रकार अभन्योंसे अनन्तगणे और सिध्दोंके अनन्तवें भागप्रमाण अनन्त स्पर्धक होते हैं ॥ ५०९ ॥ ___इतने स्पर्धकोंको मिला कर एक एक औदारिकशरीरस्थान होता है । यहां पर अनन्त ४ ता० का. प्रत्यो; 'अणंतगुण-सिद्धाण-' इति पाठः 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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