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________________ ( ५, ६, ५१० भागवड्डि-असंखेज्जभागवडि· संखेज्जभागवड्डि-संखेज्जगुणवड्डि-असंखंज्जगुणवड्डि-अणं - गुणवड्ढीओ घेत्तूण एवं छट्टाणं होदि । एरिसाणि असंखेज्जलोगमेत्ताणि छट्टाणाणि होंति त्ति घेत्तव्वं । तेति परूवणाए कीरमाणाए जहा भावविहाणे परूविदं तहा परूवेदव्वं । अंतरपरूवणदाए एक्केक्कस्स फड्डयस्स केवडियमंतरं ॥ ५१० ॥ सुगमं सव्वजीवेहि अनंतगुणा । एवडियमंतरं ।। ५११ ।। एगेण दोहितीहि संखेज्जेहि असंखेज्जेहि वा अविभागपडिच्छेदेहि फड्डु - यंतरं ण निपज्जदि किंतु सव्वजीवेहि अनंत गुणमेत्त अविभागपडिच्छेदेहि चेव फड्डुयंतरं निप्पज्जदित्ति घेत्तव्वं । द्वाणंतरपरूवणा एत्थ किण्ण कदा ? ण, फडुयंतरे अवगदे द्वाणंतरस्स वि अवगमादो । सरपरूवणदाए अनंता अविभागपडिच्छेदा सरीरबंधणगुणपण्णच्छेदणणिप्पण्णा ।। ५१२ ।। सरीरं सहावो सीलमिदि एयट्ठो । तस्स परूवणदाए अनंता अविभागपडिच्छेदा होंति त्ति पुव्वमविभागपडिच्छेद परूवणाए परूविदं । ते कत्तो निष्पण्णा ति पुच्छिदे भागवृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यात गुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि ये मिला कर एक षट्स्थान होता है । ऐसे असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थान होते हैं ऐसे यहाँ ग्रहण करना चाहिए। उनका कथन करने पर जिस प्रकार भावविधान में कथन किया है उस प्रकार करना चाहिए । अन्तरप्ररूपणाकी अपेक्षा एक एक स्पर्धकका कितना अन्तर है । ५१० ॥ ४३४ ) छखंडागमे वगणा - खंड यह सूत्र सुगम है । सब जीवोंसे अनन्तगुणा अन्तर है । इतना अन्तर है ।। ५११ । एक, दो, तीन, संख्यात और असंख्यात अविभागप्रतिच्छंदों का आश्रय लेकर स्पर्धकोंका अन्तर नहीं उत्पन्न होता है किन्तु सब जीवोंसे अनन्तगुणे अविभागप्रतिच्छेदों का आश्रय लेकर ही स्पर्धकोंका अन्तर उत्पन्न होता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए । शंका -- यहाँ पर स्थानोंके अन्तरका कथन क्यों नहीं किया ? समाधान -- नहीं, क्योंकि, स्पर्धकोंके अन्तरका ज्ञान होने पर स्थानोंके अन्तरका भी ज्ञान हो जाता है । शरीरप्ररूपणाकी अपेक्षा शरीरके बन्धनके कारणभूत गुणोंका प्रज्ञासे छेद करने पर उत्पन्न हुए अनन्त अविभागप्रतिच्छेद होते हैं ।। ५१२ ॥ शरीर, शील और स्वभाव ये एकार्थवाची शब्द हैं । उसकी अविभागप्रतिच्छेद होते हैं ऐसा पहले अविभागप्रतिच्छेद अनन्त * प्रतिषु ' एगेगदोहि' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only प्ररूपणा करने पर प्ररूपणा के समय www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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