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________________ ३८८ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ६, ३९१ एगगुणहाणिअखाणं जहण्णपदं णाम, एगसंखत्तादो। णाणागुणहाणिसलागाओ उक्कस्सपदं गाम, अणेगसंखत्तादो । गुणहाणिअद्धाणं पेक्खिदूण गाणागुणहाणिसलागाणमसंखेज्जगुणत्तदंसणादो वा उक्कस्सं जाणागणहाणिसलागाणं । आहारकम्मइयगुणगारसलागाहि वियहिचारो, पाधण्णपदमस्तिदूण गुणहाणिसलागाणं उक्कस्सववएसादो । दवटियणयावलंबणादो त्ति भणिदं होदि । जहण्णपदेण सव्वत्थोवमोरालिय-वेउब्विय-आहारसरीरस्स एयपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरं ॥ ३९१ ॥ कुदो ? अंतोमुहत्तपमाणत्तादो। होता वि तिण्णि गुणहाणिट्ठाणतराणि सरिसाणि । तं कुदो गव्वदे ? एगसुत्ते एगवयणेण च णिद्देसादो। तेयासरीरस्स एयपदेस गुणहाणिट्ठाणंतरमसंखेज्जगुणं॥३९२॥ को गुण. ? पलिदो० असंखे०भागो असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि । कम्मइयसरीरस्स एगपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरमसंखेज्जगुणं ।३९३। एकगुणहानिअध्वानका नाम जघन्यपद है, क्योंकि, उसकी संख्या एक है। नानागुणहानि शलाकाओंका नाम उत्कृष्टपद है, क्योंकि, उनकी संख्या बहुत है। अथवा गुणहानि अध्वानको देखते हुए नानागुणहानिशलाकायें असंख्यातगुणी देखी जाती हैं, इसलिए नानागुणहानिशलाकाओंकी उत्कृष्टपद संज्ञा है। आहारकशरीर और कार्मणशरीरकी गुणहानिशलाकाओंके साथ व्यभिचार भी नहीं आता है, क्योंकि, प्राधान्यपदकी अपेक्षा नानागुणहानिशलाकाओंकी उत्कृष्ट संज्ञा है । द्रव्याथिकनयका अवलम्बन लेनेसे यह संज्ञा रखी है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । जघन्यपदकी अपेक्षा औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीरका एकप्रदेशगणहानिस्थानान्तर सबसे स्तोक है ।। ३९१ ॥ क्योंकि, उसका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है। ऐसा होते हुए भी तीनों गुगहानिस्थानान्तर समान हैं। शंका-- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-- एक सूत्रमें एक वचनका निर्देश होनेसे जाना जाता है। उससे तैजसशरीरका एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगणा है । ३९२ । गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। जो पल्यका असंख्यातवां भाग पल्यके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है। उससे कार्मणशरीरका एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणा है । ३९६ । ४ ता० प्रती '-सलागाओ। (अ) णाहार' अ. का. प्रत्यो: 'सलागाओ अणाहार' इति पाठ।। * का० प्रती · तेयासरीरस्स णाणापदेस-' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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