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________________ ५, ६, ५८२ ) बंघणानुयोगद्दारे चूलिया ( ४६९ · चया णिज्जीवा पच्चक्खा चेव, अणुभावेण अनंताणं विस्सासुवचयाणं आगमचक्खु - गोयराणमुवलंभादो । एदे विस्सासुवचया महामच्छदेहभूद छज्जीवणिकाय विसया अणंतगुणा त्ति घेत्तव्वा । किंफला एसा परूवणा? दुविहविस्सासुच च यपटुप्पाय णफला । एवं विस्सासुवचयपरूवणाए समत्ताए बाहिरिया वग्गणा समत्ता होदि । चूलिया एत्तो उवरिमगंथो चूलिया णाम ||५८१ ॥ पुव्वं सूचिदअत्थाणं विसेसपरूवणादो । संपहि ' जत्थेय मरदि जीवो तत्थ दु मरणं भवे अनंताणं । वक्कमदि जत्थ एयो वक्कमणं तत्थणंताणं ।' एबिस्से गाहाए पुव्वं परुविदाए? पच्छिमद्धस्स अत्थविसेसणमुत्तरसुतं भणदि जो णिगोदो पढमदाए वक्कममाणो अनंता वक्कमंति जीवा । एयसमएण* अनंताणंतसाहारणजीवेण घेत्तूण एगसरीरं भवदि असंखेज्जलोगमेत्तसरीराणि घेत्तूण एगो निगोदो होवि ॥ ५८२ ॥ ॥ प्रयक्षसे निर्जीव ही होते हैं यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, अनुभाव के कारण आगमचक्षुके विषयभूत अनन्त विसोपचय उपलब्ध होते हैं । महामत्स्यके देहमें उत्पन्न हुए छह जीवनिकायोंको विषय करनेवाले ये विस्रसोपचय अन्तन्तगुणे होते हैं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए । शंका- इस प्ररूपणाका क्या फल है ? समाधान- दो प्रकारके विस्रसोपचयोंका कथन करना इसका फल है । 1 इस प्रकार विस्रसोपचयप्ररूपणा के समाप्त होनेपर बाह्य वर्गणा समाप्त होती है । चूलिका इससे आगेका ग्रन्थ चूलिका है ||५८१|| क्योंकि, इसमें पहिले सूचित किये गये अर्थों का विशेषरूपसे कथन किया है। अब ' जहां एक जीव मरता है वहां अनन्त जीवोंका मरण होता है और जहां एक जीव उत्पन्न होता है वह अनन्त जीवोंका उत्पाद होता है । ' पहले कही गई इस गाथा के उत्तरार्ध के अर्थ में विशेषता दिखलाने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं- प्रथम समययें जो निगोद उत्पन्न होता है उसके साथ अनन्त जीव उत्पन्न होते हैं । यहाँ एक समय में अनन्तानन्त साधारण जीवोंको ग्रहण कर एक शरीर होता है। तथा असंख्यात लोकप्रमाण शरीरों को ग्रहण कर एक निगोद होता है ।।५८२ ॥ अ० प्रती 'णिजीवा' इति पाठः । अ० का० प्रत्यो 'पुत्र परूवणदाए' इति पाठा | ता० प्रती वक्कमंति जहा एयसमएण ' इति पाठः । ' For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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