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________________ ४७०) छवखंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ६, ५८३ ___णिगोदो पुलिया ति एयट्ठो। तस्संतो अच्छंति जाणि सरीराणि सरीराणमंतो जे वसंति अणंताणंता जीवा तेसि सम्वेसि पिणिगोदा ति सण्णा, आधेये आधारोवयारादो। जो गिगोदो त्ति भनिदे णिगोदजीवो एगो घेत्तव्यो । पुलवियाणं सरीराणं वा गहणं ण होदि, तेसिमाणंतियाभावादो । पढमदाए उप्पत्तीए पढमभावेण वक्कममाणो उप्पज्जिममाणो जो णिगोदो तेण सह अणंता जीवा वक्कमंति । एगस. मएण जम्हि समए अणंता जीवा उप्पज्जति तम्मि चेव समए सरीरस्स पुलियाए च उत्पत्ती होदि, तेहि विणा तेसिमप्पत्तिविरोहादो । कत्थ वि पुलवियाए पुग्दं पि उप्पत्ती होदि, अणेगसरीराधारतादो । एसा परूवणा किमेगसरीरमाहारं काऊण परूविज्जदि आहो एगपुलवियमाहारं काऊण परूविज्जदि त्ति ? उभयमवि आहारं काऊण परूवणा कीरदे । एदं कुदो णवदे ? अंतोमहत्तमस्सिदूण उत्पत्तिकालपरूवणादो । ण च खंधेसु कमाकमेहि उप्पज्जमाणाणेगपुलविएसु अंतोमहुत्तालंबण जुत्तं, गलोइ थहल्लयादीणं बादरणिगोदक्खंधाणं पुलविमयाणं अणेगकालावट्ठाणदसणादो। बिवियसमए असंखेज्जगुणहीणा वक्कमंति ॥ ५८३ ।। ____ निगोद और पुलवि ये एकर्थवाची शब्द है। उनके भीतर जो शरीर रहते हैं और शरीरोंके भीतर जो अनन्तानन्त जीव रहते हैं उन सभी की आधार में आधेयका उपचार होनेसे निगोद संज्ञा है। सूत्र में जो निगोदो' ऐसा कहने पर एक निगोद जीव लेना चाहिए । इससे पुलवियों और शरीरोंका ग्रहण नहीं होता है, क्योंकि, वे अनन्त नहीं हैं । ' पढमदाए' अर्थात् उत्पत्ति की प्रथम अवस्थारूपसे उत्पन्न होने वाला जो निगोद जीव है उसके साथ अनन्त जीव उत्पन्न होते हैं। 'एगसमएण' अर्थात् जिस समयमें अनन्त जीव उत्पन्न होते हैं उसी समयमें शरीर की और पुलविकी उत्पत्ति होती है, क्योंकि, इनके विना अनन्त जीवोंकी उत्पत्ति होने में विरोध है। कहीं पर पुलविकी पहले भी उत्पत्ति होती है, क्योंकि, वह अनेक शरीरोंका आधार है। शंका-- यह प्ररूपणा क्या एक शरीरको आधार करके की जा रही है या एक पुलविको आधार करके की जा रही है ? समाधान-- दोनोंको ही आधार करके यह प्ररूपण की जा रही है। शंका--- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-- अन्तर्मुहूर्तका आश्रय लेकर चूंकि उत्पत्तिकालकी प्ररूपणा की गई है इससे जाना जाता है कि दोनोंका आधार बनाकर यह प्ररूपणा की जा रही है। और स्कन्धोंमें क्रप और अक्रम से उत्पन्न होने वाली अनेक पुलवियोंमें अन्तर्मुहुर्तका अवलम्बन करना युक्त नहीं है, क्योंकि, गिलोय, थूवर और आदा आदि बादर निगोद स्कन्धोंमें पुलवियोंका अनेक काल तक अवस्थान देखा जाता है। दूसरे समयमें असंख्यातगुणे हीन निगोद जीव उत्पन्न होते हैं ॥५८३॥ * अ० प्रतौ ‘णिगोद ति इति पाठ | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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