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________________ ५, ६, ५२४ ) बंधणाणुयोगद्दारे विस्सासुवचयपरूवणा ( ४४१ दव्वहाणिपरूवणवाए ओरालियसरीरस्स जे एयपदेसियवग्गणाए दव्वा ते बहुआ अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा ।। ५२४ ॥ जे ओरालियसरीरणोकम्मपदेसा जीवादो विफट्टसमए चेव अण्णेहि परमाणूहि असंजुत्ता संता सव्वलोगमावरिय टिदा तेसि गहिदसलागाओ बहुगाओ । बहुत्तं कुदो णम्वदे ? एवम्हादो चेव सुत्तादो । ण च पमाणं पमाणतरमवेक्खदे, विरोहादो। जीवादो पुधभदाणं पंचसरीरपोग्गलाणमेसा परूवणा त्ति कुदो णव्वदे ? एयपदेसिय. वग्गणाए दवा बहुआ ति सुत्तादो। ण च पंचसरीरेसु जीवसहिदेसु एयपदेसियवग्गणाए दव्वमत्थि, अगहणाए गहणभावविरोहादो। अविरोहे वा अभेदो होज्ज, अणंताणंतपरमाणसमुदयसमागमेण विणा ओरालियसरीरभावविरोहादो। ते च परमाण अणंताणतेहि विस्तासुवचएहि पादेक्कं उचिदा, तत्थ अणंताणं बंधणगुणविभागपडिच्छेदाणं संभवादो। ण च परमाणुम्हि ओदइयभावे, संते अणंताणताणं बंधणगणाविभागपलिच्छेदाणमभावो होदि, विरोहादो*। द्रव्यहानिप्ररूपणाको अपेक्षा औदारिकशरीरको एकप्रदेशी वर्गणाके जो द्रव्य हैं वे बहुत हैं जो कि अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित हैं ॥ ५२४ ।। जो औदारिकशरीरके नोकर्मप्रदेश जीवसे अलग होने के समयमें ही अन्य परमाणुओंसे असंयुक्त होकर सब लोकको व्याप्त कर स्थित हैं उनकी ग्रहण की गई शलाकायें बहुत हैं। शंका-- इनका बहुत्व किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-- इसी सूत्रसे जाना जाता है। और एक प्रमाण अन्य प्रमाणकी अपेक्षा नहीं करता, क्योंकि, ऐसा मानने में विरोध आता है। शंका-- जीवसे पृथक् हुए पाँच शरीरोंके पुद्गलोंकी यह प्ररूपणा है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-- एकप्रदेशी वर्गणाके द्रव्य बहुत हैं इस सूत्रसे जाना जाता है। और जीव सहित पाँच शरीरोंमें एकप्रदेशी वर्गणाका द्रव्य नहीं है, क्योंकि, अग्रहण योग्य वर्गणाके ग्रहगभावके होने में विरोध आता है। यदि अविरोध माना जाता है तो अभेद हो जायगा, क्योंकि, अनन्तानन्त परमाणुसमुदयसमागमके बिना उनके औदारिकशरीररूप होने में विरोध आता है। वे परमाणु अलग अलग अनन्तानन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित हैं, क्योंकि, उनमें बंधनगुणके अनंत अविभागप्रतिच्छेद सम्भव हैं। और परमाणु में औदयिकभावके रहते हुए बन्धनगुणके अनंतानंत अविभागप्रतिच्छेदोंका अभाव नहीं हो सकता, क्योंकि, ऐसा होनेका विरोध है। ४ ता० प्रती ' ओदइए ( हि ) भावे' इति पाठः । * का० प्रती बंधणगणाविभागपडिच्छेदाणमभावो होदि विरोहादो' इति पाठा] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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