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________________ ४४२ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५,६,५२५ जे दुपदेसिय वग्गण (ए दव्वा ते विसेसहीणा अनंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा ॥ ५२५ ॥ जे ओरालिय सरीरपदेसा जीवादो विफट्टसमए चेव दो दो अण्णोष्णबंधगया सि दिसलागाओ पुव्वस लागाहितो विसेसहीणाओ । केत्तियमेत्तेण ? हेट्ठिमसलागाओ अभवसिद्धिएहि अनंतगुणेण सिद्धाणमणंतभागेण खंडिदूण तत्थ एयखंडमेत्तेण । एसो वि दोहं परमाणूणं समुदयसमागमो अणतेहि विस्सासुवचएहि पादेककमुवचिदो । एवं तिपदेसिय चदुपदे सिय-पंचपदेसिय-छप्पदेसिय-सत्तपदेसियअट्ठपदेसिय- नवपदे सिय-दस पदेसिय-संखेज्जपदेसिय-असंखेज्जपदेसियअनंतपदेसिय अनंताणंतपदेसियवग्गणाए बव्वा ते विसेसहीणा अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा ।। ५२६ ।। एत्थ तिपदेसिय· चउपदेसादिसु पादेवकवग्गणाए दव्वा विसेसहीणा अणतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा त्ति संबंधो कायव्वो, अण्णहा सुत्तत्थाणुववत्तदो । अनंतविस्सासुवचएहि उवचिदतिपदेसि यवग्गणसला गाओ विसेसहीणाओ । तत्तो अनंतविस्सासुवचएहि उवचिदचदुष्पदेसियवग्गण सलागाओ विसेस होणाओ । एवं यव्वं जो द्विप्रदेशी वर्गणा द्रव्य हैं वे विशेष होन हैं जो अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित हैं । ५२५ जो ओदारिकशरीर के प्रदेश जीवसे अलग होते समय ही परस्पर में दो दो होकर बन्धको प्राप्त हैं उनकी स्थापित की गई शलाकायें पूर्वकी शलाकाओंसे विशेष हीन हैं। कितनी हीन हैं ? अधस्तन शलाकाओंको अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाणसे भाजित कर वहां जो एक भाग लब्ध आता है उतनी हीन हैं । यह दो दो परमाणुओंका समुदय समागम भी अलग अलग अनन्त त्रिस्रसोपचयोंसे उपचित हैं । इसी प्रकार त्रिप्रदेशी, चतुःप्रदेशी, पञ्चप्रदेशी, छहप्रदेशी, सातप्रदेशी, आठप्रदेशी, नौप्रदेशी, दसप्रदेशी, संख्यातप्रदेशी, असंख्यात प्रदेशी, अनन्तप्रदेशी और अनन्तानन्तप्रदेशी वर्गणाके जो द्रव्य हैं वे विशेषहीन हैं जो प्रत्येक अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित हैं ॥ ५२६ ॥ यहां पर त्रिप्रदेशी और चतुःप्रदेशी आदिमें प्रत्येक वर्गणा के द्रव्य विशेष हीन हैं और अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित हैं ऐसा सम्बन्ध करना चाहिए, अन्यथा सूत्रका अर्थ नहीं बन सकता । अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित त्रिप्रदेशी वर्गणाशलाकायें विशेष हीन हैं। उनसे अनन्त विस्रसोपचयों से उपचित चतुःप्रदेशी वर्गणाशलाकायें विशेष हीन हैं। इस प्रकार अनन्त * ता० का० प्रत्योः ' सुत्तट्ठाणुववत्तीदो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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