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________________ १३६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड असुण्णाओ ताओ असुण्णत्तणेण कि धवाओ किमदधवाओ? अधवाओ । कुदो ? असुण्णभावेण सव्वकालं तासिमवढाणाभावादो । एत्थ सरिसधणियक्खंधेसु सवेसु विणढेसु वग्गणाभावादो । एक्कम्हि वि खंधे संते वग्गणा अस्थि चेवे त्ति घेत्तत्वं । सुण्णाओ सुण्णत्तण किं धुवाओ कि धुवाओ ? अवधवाओ। कुदो ? सुण्णाओ णाम परमाणुविरहिदवग्गणाओ; तासि सुण्णभावेण अवट्ठाणाभावादो। हेट्ठिमवग्गणाओ संघादेण उवरिमवग्गणाओ भेदेण जं तेण कालेण सुण्णवग्गणमसुग्णं कुणति त्ति भगिदं होदि। सुण्णाओ वि असुण्णाओ वि वग्गणाओ वग्गणादेसेण धुवाओ। को वग्गणादेसो णाम ? वग्गणाणं संभवसामण्णं वग्गणादेसो णाम । तेण वग्गणादेसेण सव्वाओ सव्वकालमत्थि ति धुवाओ । पत्तैयसरीरवग्गणाओ जाओ भवसिद्धियपाओग्गाओ सजोगि-अजोगीसु लभमाणाओ ताओ सुण्णाओ वि असुग्णाओ वि । कुदो ? सव्वजीवेहि अणंतगणमेत्तसजोगिअजोगिपाओग्गपत्तेयसरीरवग्गणटाणेसु वट्टमाणकाले संखेज्जाणं चेव जीवाणमवलंभादो। ण च संखेज्जेहि जीवेहि सव्वजीवेहि अणंतगुणमेत्तपत्तयसरीरवग्गणढाणाणि वट्टमाणकाले आवरिज्जति ; विरोहादो। एत्थ जाओ सुण्णाओ ताओ सुग्णतणेण अर्धवाओ; सम्वकालमेदीए वग्गणाए सुण्णाए चेव होदवमिदि णियमाभावादो। जाओ असुण्णाओ ताओ वि असुष्णत ण अद्धवाओ; तासिमेगसरूवेण अवट्ठाणाभावादो। सान्तरनिरन्तरद्रव्यवर्गणाएं अशन्यरूप हैं वे अशन्यरूपसे क्या ध्रुव है या क्या अध्रुव हैं ? अध्रुव हैं, क्योंकि, अशून्यरूपसे उनका सदा काल अवस्थान नहीं रहता। सदृश धनवाले सब स्कन्धोके विनष्ट होनेपर वर्गणाका अभाव होता है । तथा एक भी स्कन्धके रहनेपर वर्गणा है ही ऐसा अर्थ यहां ग्रहण करना चाहिए । शून्य वर्गणाएं शून्यरूपसे क्या ध्रुब हैं या क्या अध्रुव हैं ? अध्रुव हैं, क्योंकि शून्यका अर्थ है परमाणुओंसे रहित वर्गणायें, किन्तु उनका शून्यरूपसे सदा अवस्थान नहीं रहता। नीचेकी वर्गणाऐं संघातसे और ऊपरकी वर्गणाएं भेदसे उस कालमें शून्यवर्गणाको अशून्यरूप करती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । शून्य वर्गणाऐं और अशून्य वर्गणाऐं भी वर्गणादेशकी अपेक्षा ध्रुव हैं।। शंका - वर्गणादेश किसे कहते हैं ? समाधान - वर्गणाओंके सम्भव सामान्यको वर्गणादेश कहते हैं। उस वर्गणादेशकी अपेक्षा सब वर्गणाऐं सर्वदा हैं इसलिए ध्रुव हैं। जो भव्योंके योग्य प्रत्येकशरीरवर्गणाऐं सयोगी और अयोगी जीवोंके प्राप्त होती हैं वे शून्य रूप भी है और अशून्यरूप भी है क्योंकि, सब जीवोंसे अनन्तगुणे सयोगी-अयोगीप्रायोग्य प्रत्येक शरीर वर्गणास्थानोंमेंसे वर्तमान काल में संख्यात जीव ही उपलब्ध होते हैं। यह कहना कि संख्यात जीव वर्तमान कालमें सब जीवोंसे अनन्तगुणे प्रत्येकशरीरवर्गणास्थानों को भर देंगें, ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा होने में विरोध आता है। यहां जो वर्गगायें शून्य है वे शून्यरूपसे अध्रुव है, क्योंकि, सर्वदा इस वर्गणाको शून्यरूप ही होनी चाहिए ऐसा कोई नियम नहीं है । जो वर्गणाएं अशून्यस्वरूप है वे अशून्यरूपसे अध्रुव है क्योंकि उन वर्गणाओंका एकरूपसे अवस्थान नहीं रहता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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