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________________ ५, ६, ११६. ) बंधणाणुयोगद्दारे सेसाणुयोगद्दारपरूवणा (१३७ एवं संभवं पडुच्च परविदं । वत्तिं पडुच्च पुण भण्णमाणे सजोगि-अजोगिपाओग्गपत्तेयसरीरवग्गणट्टाणेसु अणंताहि वगणाहि सुण्णभावेण अवद्विदाहि होदव्वं ; तिसु वि कालेसु सजोगि-अजोगीहि अच्छताणताणसंभवादो। अभवसिद्धियपाओग्गाओ जाओ पत्तेयसरीरवग्गणाओ सुण्णाओ ताओ सुण्णत्तर्णण अधुवाओ; सुण्णाणं पि वग्गणाणं उवरिमहेट्ठिमवग्गणाणं भेदसंघादेण पच्छा असुण्णत्तुवलंभादो । एदं पि संभवं पडुच्च परूविदं । वत्ति पडुच्च पुण गिहालिज्जमाणे सुण्णाओ* सुण्णत्तणेण अवट्टिदाओ अस्थि; पुढवि-आउ-तेउवाउकाइएहि देव-णेरइय-सजोगि-अजोगिजीवेहिय असखेज्जलोगमेत्तेहि सव्वजीवेहि अणंतगुणमेत्तपत्तेयसरीरवग्गणट्टाणाणमावूरणे संभवाभावादो । असुण्णाओ असुग्णत्तणेण अर्धवाओ; पत्तेयसरीवग्गगदव्वाणं वडिहाणीहि विणा सम्वत्थमवट्ठाणाभावादो। वग्गणादेसेण पुग पत्तेयसरीरवग्गणाओ सव्वाओ धुवाओ होंति; सांतरगिरंतरवग्गणाणं व सव्वेसि पत्तेयसरीरवग्गगट्टाणाणं कम्हि वि काले सुण्णत्ताणवलंभादो। बादरणिगोदवग्गणाओ जाओ भवसिद्धियपाओग्गाओ खीणकसायम्मि लम्भमाणाओ ताओ सण्णाओ सण्णत्तणेण अधुवाओ; सुण्णाणं सुण्णभावेण सव्वकालमवट्ठाणाभावादो । एदं संभवं पड्डच्च परूविदं । वत्ति पडुच्च पुण भण्णमाणे सुण्णाओ सुण्णत्तणेण धुवाओ अस्थि ; संखेज्जाणं खीणकसायाणं सव्वजीवेहि अणंतगुणमेत्तखीण____ यह सम्भवकी अपेक्षा कहा है। परन्तु व्यक्तिकी अपेक्षा कथन करने पर सयोगी और अयोगीप्रायोग्य प्रत्येकशरीरवर्गणास्थानोंमेंसे अनन्त वर्गणायें शून्यरूपसे अवस्थित होनी चाहिए, क्योंकि, तीनों ही कालोंमें सयोगी और अयोगी जीवोंके द्वारा नहीं छुए गये अनन्त स्थान सम्भव हैं। तथा अभव्योंके योग्य जो प्रत्येकशरीरवर्गणायें शून्यरूप हैं वे शन्यरूपसे अध्रुव हैं, क्योंकि, शून्यरूप वर्गणाओं का भी उपरिम और अधस्तन वर्गणाओंके भेद-संघातसे बादमें अशून्यरूपसे अद्भाव पाया जाता है । यह भी सम्भवको अपेक्षा कहा है । परन्तु व्यक्ति की अपेक्षा देखने पर शन्य वर्गणायें शन्यरूपसे अवस्थित हैं. क्योंकि, पथिवीकायिक. जलकायिक. अग्निकायिक, वायुकायिक, देव, नारकी, सयोगी और अयोगी इन असंख्यात लोकप्रमाण सब जीवोंके द्वारा अनन्तगुणे प्रत्येकशरीरवर्गणास्थानोंका व्याप्त करना सम्भव नहीं है । अशून्य वर्गणायें अशून्यरूपसे अध्रुव हैं, क्योंकि, प्रत्येकशरीरवर्गणाद्रव्योंका वृद्धि और हानिके विना सर्वदा अवस्थान नहीं पाया जाता है। परन्तु वर्गणादेशकी अपेक्षा सब प्रत्येकशरीर वर्गणायें ध्रुव है, क्योंकि, सान्तरनिरन्तरवर्गणाओंके समान सब प्रत्येकशरीवर्गणास्थानोंका किसी भी कालमें शून्यपना नहीं पाया जाता । बादरनिगोदवर्गणायें जो कि भन्थोंके योग्य क्षीणकषाय गुणस्थानमें उपलब्ध होती हैं वे शून्यरूप होकर शून्यरूपसे अध्रुव हैं, क्योंकि, शून्य वर्गणाओंका शून्यरूपसे सदा अवस्थान नहीं पाया जाता । यह सम्भवकी अपेक्षा कहा है । परन्तु व्यक्तिकी अपेक्षा कथन करने पर शून्य वर्गणायें शून्यरूपसे ध्रुव हैं, क्योंकि, संख्यात क्षीणकषाय जीवोंका सब जीवोंसे अनन्तगुण ४ ता० प्रती 'णिहालिउजमाणेण सुण्णाओ' इति पाठः ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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