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________________ ३३६ ) छवखंडागमे वग्गणा - खंड ( ५, ६.२४९ वलियमच्छदि, बंधावलियादिक्कत मोकडिदूण समयाहियावलियाए उदए पादिदस्स दुसमाहियआवलियाए अकम्मभावदंसणादो । एदं अत्थपदं लक्षूण उवरि सव्वत्थ वत्तव्वं । एवं समुक्कित्तणा ति समत्तमणुयोगद्दारं । पदेसपमाणानुगमेण ओरालिय- वेउब्विय- आहारसरीरिणा तेणेव पढमसमयआहारएण पढमसमयतब्भवत्थेण ओरालिय- वेउब्विय- आहारसरीरत्ताए जं पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं केवडिया ।। २४९ ।। एदं पुच्छासुतं अनंतादिसंखमवेक्खदे । केवडिया इदि बहुवय णणिद्देसो पदेसग्गगदबहुत्तावेक्खो । अभवसिद्धिएहि अनंतगुणो सिद्धाणमनंतभागो ।। २५० ।। निषिक्त होता है उसमें से कुछ जीवमें एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण काल तक रहता है, क्योंकि, बन्धावलि के बाद द्रव्यका अपकर्षण करके एक समय अधिक आवलिरूप उदय समयम लाये गये द्रव्यका दो समय अधिक आवलिके अन्तिम समय में अकर्मपना देखा जाता है । इस अर्थपदको ग्रहण करके आगे सर्वत्र कहना चाहिए । विशेषार्थ - तेजसशरीर और कार्मणशरीर सन्ततिकी अपेक्षा अनादि सम्बन्धवाले हैं । भवके परिवर्तन के साथ जिस प्रकार औदारिक और वैक्रियिक शरीर बदल जाते हैं उसप्रकार ये नहीं बदलते । विग्रहगति में इनकी परम्परा चालू रहती है, इसलिए इन दोनों की निषेक रचना प्रथम समय में आहरण करनेवाले और प्रथम समय में तद्भवस्थ हुए जीवके द्वारा प्रारम्भ नहीं कराई गई है । किन्तु बन्धकी अपेक्षा कहीं भी प्रथम समय मान कर शरीरोंकी निषेकरचनाका विधान किया है । तैजसशरीरका शेष विचार औदारिक आदि तीन शरीरोंकी समान है । मात्र कार्मणशरीरकी निषेकरचना और अवस्थितिकाल में कुछ विशेषता है । तात्पर्य यह है कि कार्मणशरीरकी निषेकरचना आबाधा कालको छोड़ कर होती है । तथा कोई भी निषेक बन्धकाल से लेकर कमसे कम एक समय एक आवलि प्रमाण काल तक अवश्य ही अवस्थित रहता है । शेष विचार अन्यत्र से जान लेना चाहिए । इस प्रकार समुत्कीर्तना अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । प्रदेशप्रमाणानुगमकी अपेक्षा जो औदारिकशरीरवाला, वैक्रियिकशरीरवाला और आहारकशरीरवाला जीव है, प्रथम समयमें आहार करनेवाले और प्रथम समय में तद्भवस्थ हुए उसी जीवके द्वारा औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीर रूप से जो प्रदेशाग्र प्रथम समय में निषिक्त होते हैं वे कितने हैं |२४९| यह पृच्छासूत्र अनन्त आदि संख्या की अपेक्षा करता है । तथा 'केवडिया' इस प्रकार बहुवचनका निर्देश प्रदेशाग्रगत बहुत्वकी अपेक्षा करता है । अभव्यों से अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण है || २५० ॥ Jain Education International प्रतिषु 'धवलादियादि-' इति पाठ 1 प्रतिषु 'मुवेक्खदे' इति पाठा ] For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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