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________________ ५, ६, २४७ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए समुक्कित्तणा ( ३३५ तेयासरीरिणा तेयासरीरत्ताए जं पढमसमए पदेसग्गं णिसितं तं जीवे किंचि एगसमयमच्छदि किंचि बिसमयमच्छदि किंचि तिसमयमच्छदि एवं जाव उक्कस्सेण छावट्ठिसागरोवमाणि ॥२४७॥ एगजोगमकाऊण किमळं पुधभदभेदं सुत्तं वच्चदे ? ण, पढमसमयआहारएण पढमसमयतब्भवत्येण णिसेगरचणा कीरदे त्ति एत्थ णियमाभावादो। अणादिसंसारे हिंडंतस्स जीवस्स जत्थ कत्थ वि टाइगुण तेजइयसरीरमेत्तपदेसरचणवलंभादो। सेसं सगमं, पुव्वसुत्तत्थेण विसेसाभावादो। कम्मइयसरीरिणा कम्मइयसरीरत्ताए जं पदेसग्गं णिसित्तं तं किंचि जीवे समउत्तरावलियमच्छदि किंचि विसमउत्तरावलियमच्छदि किंचि तिसमउत्तरावलियमच्छवि एवं जाव उक्कस्सेण कम्मछिदि त्ति ॥२४८॥ एत्थ कम्मदिदि ति* वृत्ते सत्तरिसागरोवमकोडाकोडी घेत्तवा, अट्टकम्मकलावस्स कम्मइयसरीरत्तब्भवगमादो । जं पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं किंचि जीवे समउत्तराइन औदारिक आदि तीन शरीरोंकी निषेक रचना किस प्रकार होती है इसका विचार किया । तैजसशरीरवाले जीवके द्वारा तैजसशरीररूपसे जो प्रदेशाग्र प्रथम समयम बांधे जाते है उनमेंसे कुछ जीवमें एक समय तक रहता है, कुछ दो समय तक रहता है और कुछ तीन समय तक रहता है। इस प्रकार उत्कृष्टरूपसे छयासठ सागर काल तक रहता है ।। २४७ ॥ शंका- एक सूत्र न करके यह सूत्र अलगरूपसे किसलिए कहा है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, प्रथम समयमें आहार करनेवाला और प्रथम समयमें तद्भवस्थ हुआ जीव निषेक रचना करता है इस प्रकारका यहाँ कोई नियम नहीं है तथा अनादिसे संसारमें घूमते हुए जीवके जहाँ कहीं भी स्थापित करके तैजसशरीरकी प्रदेश रचना उपलब्ध होती है । शेष कथन सुगम है, क्योंकि, पूर्वके सूत्रार्थसे इसमें कोई विशेषता नहीं है । ___ कार्मणशरीरवाले जोवके द्वारा कार्मणशरीररूपसे जो प्रदेशाग्र बांधे जाते हैं उनमेंसे कुछ जीवमें एक समय अधिक आवलि प्रमाण काल तक रहता है, कुछ दो समय अधिक आवलिप्रमाण काल तक रहता है और कुछ तीन समय अधिक आवलिप्रमाण काल तक रहता है। इस प्रकार उत्कृष्टरूपसे कर्मस्थिति प्रमाण काल तक रहता है ।। २४८।। यहाँ पर कर्मस्थति ऐसा कहने पर सत्तर कोडाकोडी सागरका ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि, आठों कर्मों के समुदायको कार्मणशरीररूपसे स्वीकार किया है। प्रथम समयमें जो प्रदेशाग्र * म०प्रतिपाठोऽयम् । ता० प्रती ' कम्मटुिंदि त्ति ||१८०॥ ( कम्मट्ठिदि त्ति- ) वुत्ते ' अ०का० प्रत्योः एत्थ कम्मट्रिदि ति ' इति पाठो नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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