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________________ ८० ) छत्रखंडागमे वग्गणा - खंडं ५, ६, ९१. असंखंज्जदिभागमेत्तद्दव्वु वलंभादो । संपहि दोसु जीवेसु ट्ठियओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीराणं छप्पुंजा पुव्वविहाणेण वड्ढावेयव्त्रा जाव दोष्णं जीवाणं पाओग्गउक्कस्सदव्वं पत्ता त्ति । पुणो तिण्णिबादरपुढ विकाइयपज्जत्तजीवा अण्णोषण संबद्धसरीरा दोष्णं बादरपुढ विपज्जत्त जीवाणमुक्कस्सदव्त्रस्स कयतिभागसंच्या एदेहि दोहि वि सरिसा होंति । पुणो ते मोत्तूण इमे घेतूण पुर्व्वाविहाणेण वड्ढावेदव्वा जाव अप्पप्पणो उक्कस्पमाणं पत्ता त्ति । पुणो एदेसि तिष्णं दव्त्राणं केसि दव्वं सरिसं त्ति वृत्ते वुच्चदे । तं जहा- चदुष्णं बादरपुढविकाइयजीवाणं तिष्णं बादरपुढ विकाइयउक्करसदव्वस्स चदुब्भागसंचयाणं एगबंधणबद्धाणं दव्वं सरिसं होदि । एदेसि पि दव्वं तेणेव कमेण वड्ढा वेदव्वं जाव चदुष्णं जीवाणमुक्कस्सदव्वं पत्तं त्ति । एवं पंच-छ सत्तट्ठ- नव-दसtags जाव तप्पा ओग्गपलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तबादरपुढविकाइयपज्जत्तजीवा त्ति दव्वं । पुणो एदेसिमोरालिय-तेजा - कम्मइयसरीराणि कमेण वड्डाविय पुणो एगबंधणबद्ध बाद रते उक्काइयपज्जत्तजीवा doaसंचयेण एगबंधणबद्ध पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तबादरपुढविकाइयपज्जत्तजीवे हि सरिसा घेत्तव्वा । पुणो एदे घेत्तूण पुव्वविहाणेण एदेसिमोरालिय- तेजा कम्म इयसरीराणि परिवाडीए वड्डाविय पुणो द्रव्य उपलब्ध होता है। अब इन दोनों जीवोंमें स्थित औदारिक, तेजस और कार्मणशरीरके छह पुञ्जको पूर्वोक्त विधिसे तब तक बढाना चाहिए जब तक वे दो जीवोंके योग्य उत्कृष्टपनेको नहीं प्राप्त होते । पुनः बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त तीन ऐसे जीव लो जो परस्परमें शरीरसे संबद्ध हों और जिनमें से प्रत्येकका प्रत्येकशरीर द्रव्यवर्गणा संचय दो बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीवों के उत्कृष्ट संचय के तीसरे भागप्रमाण हो । इसलिए इनका संचय उक्त दो जीवोंके संचयके समान होता है । पुनः उन पूर्वोक्त जीवोंको छोड़कर और इनका अवलम्बन लेकर पूर्वोक्त विधिसे अपने उत्कृष्ट प्रमाणके प्राप्त होने तक द्रव्यकी वृद्धि करनी चाहिए । पुनः इन तीनोंका द्रव्य किनके द्रव्यके समान होता है ऐसा प्रश्न करने पर उत्तर देते हैं । यथा - ऐसे चार बादर पृथिवीकायिक जीव लो जो एक बन्धनबद्ध हैं और जिनमें से प्रत्येकको तीन बादर पृथिवीकायिक जीवोंके उत्कृष्ट सचयके चौथे भागप्रमाण द्रव्यका संचय प्राप्त हुआ है, अतएव एन चारोंका संचय उक्त तीनों के संचयके तुल्य है । इनके भी द्रव्यको उसी क्रमसे बढाना चाहिए जिससे इन चारों जीवोंका द्रव्य उत्कृष्टपनेको प्राप्त हो जाय । इस प्रकार पाँच, छह, सात, आठ, नौ और दससे लेकर तत्प्रायोग्य पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीवोंके होने तक ले जाना चाहिए । पुनः इनके औदारिक, तैजस और कार्मणशरीरोंको क्रमसे बढाकर पुनः एक बन्धनबद्ध इतने बादर तेजकायिक पर्याप्त जीव लेने चाहिए जो द्रव्यसंचयकी अपेक्षा एक बन्धनबद्ध पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीवोंके समान हों। पुनः इनका आश्रय करके पूर्वोक्त विधिसे इनके औदारिक, तैजस और कार्मणशरीरोंको आनुपूर्वी से बढाकर पुनः एक जीवको अधिक करते हुए जब तक एक बन्धनबद्ध बादर XxX ता० प्रती - मेत्तदव्त्र - आप्रतौ - मित्ततद्दन्व - इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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