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________________ ( ७९ ५, ६, ९१. ) बंधाणुयोगद्दारे पत्तेयसरी रदव्ववग्गणा संपहि एगजीवमस्दूिण णेरइयचरिमसमए वड्ढी णत्थि पत्तुक्कस्सभावादो । बादरपुढ विकाइयपज्जत्तवेजीवे घेत्तूण लभिस्सामो। तं जहा- गुणिदघोलमाणलक्खणेनागदा वेबादरपुढविकाइयपज्जत्तजीवा अण्णोणेण संबद्धसरीरा णारगुक्कस्सपत्तेयसरीरवग्गणाए पावकं कदअद्धद्धसंचया चरिमसमयणेरइ यस्स वेडव्विय-तेजा-कम्मइयसरीरेहि सह सरिसा । जदि वि वे उव्वियसरीरादो ओरालियसरीरमसंखेज्जगुणहोणं तो वि सरिसत्तं ण विरुज्झदे; तेजा - कम्मइयसरीरेसु वे उब्वियसरीरस्स प्रत्येकशरीर द्रव्यवर्गणा सबसे उत्कृष्ट होती हैं। यहां इस वर्गणा से वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर और कार्मणशरीर तथा इनके विस्रसोपचय इन छह पुञ्जोंका ग्रहण होता है । मध्य में इस वर्गणाके अनेक विकल्प हैं जिनका निर्देश मूलमें किया ही है । यहां जघन्य वर्गणा, एक परमाणु अधिक जघन्य वर्गणा, दो परमाणु अधिक जवन्य वर्गणा इत्यादि क्रमसे वृद्धि करते हुए उत्कृष्ट वर्गणा लाने की विधि जिस प्रकार मूलमें बतलाई गई है उस प्रकार उसे जान लेना चाहिए । पहले अन्तिम समयवर्ती अयोगी जिनके ही नाना जीवोंका आलम्बन लेकर जघन्य वर्गणा में परमाणुओं की वृद्धि की गई है। इसके बाद उपान्त्य समयवर्ती अयोगी जिनका आश्रय करके वृद्धि कही गई है और इस प्रकार पीछे लौटकर प्रथम समयवर्ती सयोगी जिन तक आकर वृद्धिका क्रम दिखलाया गया है । इसके बाद देव और देवोंके बाद नारकी जीवोंको स्वीकार करके प्रत्येकशरीर द्रव्यवर्गणा अपने उत्कृष्ट विकल्प तक उत्पन्न की गई है । प्रथम समयवर्ती सयोगी जिनके बाद आहारकशरीर, पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, और वायुकायिक, जीवोंका ग्रहण इसलिए नहीं किया, क्योंकि, एक जीवकी अपेक्षा इनके जो प्रत्येकशरीर द्रव्यववर्गणा होती है उसका ग्रहण मध्यम विकल्पों में आ जाता है । यहां जघन्य वर्गणासे उत्कृष्ट वर्गणा लाते समय प्रत्येक स्थल पर गुणकार सब जीवोंसे अनन्तगुणा बतलाया गया है सो यह कथन सम्भव सत्यकी अपेक्षासे किया गया जानना चाहिए; क्योंकि प्रत्येक जीवके औदारिकशरीय आदि जघन्य वर्गणासे अपनी औदारिकशरीर आदि उत्कृष्ट वर्गणा व्यक्तरूपसे सब जीवोंसे अनन्तगुणे परमाणुओंके समुच्चयरूप नहीं होती । कारण कि औदारिकशरीर आदि अपनी जघन्य वर्गणासे उत्कृष्ट वर्गणाका गुणकार अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धों के अनन्तवें भागप्रमाण ही बतलाया है । इस प्रकार एक जीवको अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ठ प्रत्येकशरीर द्रव्यवर्गणा के स्वामीका विचार किया । अब एक जीवका अवलम्बन लेकर नारकी के अन्तिम समय में वृद्धि नहीं है, क्योंकि, उत्कृष्टपनेको प्राप्त हो गया है अतः बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त दो जीवोंका आलम्बन लेकर प्रत्येकशरीय द्रव्यवर्गणाको प्राप्त करते हैं । यथा-यहां गुणितघोलमान विधिसे आये हुए ऐसे दो बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीव लो जिनके शरीर परस्परमें सम्बद्ध हैं और जिनमेंसे प्रत्येकके प्रत्येकशरीर वर्गणाका संचय नारकी के उत्कृष्ट प्रत्येकशरीर वर्गणा के संचयसे आधा आधा है । अतएव इन दोनों जीवों के प्रत्येकशरीर द्रव्यवर्गणाका संचय अंतिम समयवर्ती नारकी जीवके वैक्रियिक, तैजस और कार्मणशरीर के संचयके समान होता है । यद्यपि वैक्रियिकशरीरसे औदारिकशरीर असंख्यातगुणा हीन होता है तो भी इन दोनों संचयोंके सदृश होने में कोई विरोध नहीं आता ; क्योंकि तैजस और कार्मणशरीरोंके रहते हुए वैक्रियिकशरीर के असंख्यातवें भागमात्र ओदारिकशरीरका ॐ अ० प्रतौ - णागद * अ० आ० प्रत्योः - णरइय' इति पाठः । आ० प्रतौ - णागदे, इति पाठ: 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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