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________________ ४१८ ) छपखंडागमे वग्गणा- कदलीघादेण विणा जीविदूण मुदो त्ति जाणावणढें कमेण कालगदो त्ति भणिदं । सत्तमा पुढवी अधो चेव होदि ण अण्णत्थे त्ति जाणावणळं अधो णि देसो कदो। जत्थ आउअंबद्धं तत्थेव णियमेण उप्पज्जदि त्ति जाणावणठें बिदियसतमपुढविग्गहणं कदं । सत्तमपुढवीए चेव किमट्ठ उप्पाइदो ? ण, तत्थ संकिलेसेण बहुदव्वस्स उक्कडणुवलंभादो अण्णत्थ एवं विहसंकिलेसामावादो। आउअपमाणणिद्देसो किण्ण कदो ? तबाउअस्स देसूणत्तपदुप्पायणढें । तदो उवट्ठिदसमाणो पुणरवि पुधकोडाउएसुववण्णो ॥४६२॥ पुणो पुवकोडीए किमदमप्पाइदो। ण, तत्थ उक्कस्सजोगपरावतणवाराणं पउरमुवलंभादो । तं पि कुदो णव्वदे ? एवम्हादो चेव सुत्तादो । तेणेव कमेण आउअमणपालइत्ता तदो* कालगदसमाणो पण रवि अधो सत्तमाए पुढवीए णेरइएस उववण्णो ॥ ४६३ ॥ कदलीघादेण ओवट्टणाघादेण च विणा जीविदूण मुदो त्ति जाणावणठें तेणेव कदलीघातके बिना जीवन धारण कर मरा इस बातका ज्ञान कराने के लिए 'कमेण काल गदो' पदका कथन किया है। सातवीं पृश्निवी नीचे ही होती है अन्यत्र नहीं इस बात का ज्ञान कराने के लिए 'अधः' पदका निर्देश किया है। जहां की आयुका बंध करता है वहां ही नियमसे उत्पन्न होता है इस बातका ज्ञान कराने के लिए दूसरी बार सप्तम पृथिवी पदका ग्रहण किया है। शंका-- सातवीं पृथिवीमें ही क्यों उत्पन्न कराया है ? समाधान-- नहीं, क्योंकि, वहां पर संक्लेशके कारण बहुत द्रव्य का उत्कर्षण उपलब्ध होता है । तथा अन्यत्र इस प्रकारका संक्लेश नहीं पाया जाता । शंका-- आयुके प्रमाणका निर्देश किसलिए नहीं किया ? समाधान-- उसकी आयु कुछ कम होती है इस बातका कथन करने के लिए आयु के प्रमाणका निर्देश नहीं किया है। वहांसे निकलकर फिर भी पूर्वकोटिकी आयुवालोंमें उत्पन्न हुआ ॥ ४६२ ।। शंका-- पुनः पूर्वकोटिकी आयुवालोंमें किसलिए उत्पन्न कराया है ? समाधान-- नहीं, क्योंकि, वहां पर उत्कृष्ट योगके परावर्तनके बार प्रचुरतासे पाये जाते हैं। शंका -- यह भी किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान -- इसी सूत्रसे जाना जाता है । उसी क्रमसे आयका पालन करके मरा और पुनः नीचे सातवीं पृथिवीके नारकियोमें उत्पन्न हुआ।। ४६३ ।। कदलीघात और अपरावर्तनाघातके बिना जीवन धारण कर मरा इस बातका ज्ञान कराने के , ता. प्रतो । जाणावणठं कालगढो' इति पाठः । * का० प्रती ' तदो कालगदसमाणो' इत आरभ्य 'विदियगुढवि-' इत। पूर्व पाठो नास्ति ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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