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________________ ५, ६, ४६१. ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए पदमीमांसा ( ४१७ सो चेव तेजइयसरीरणोकम्मस्स उक्कस्सियं द्विदि बंदि ति ण घेत्तव्वं किंतु जो पुवकोडाउओ जीवो पज्जत्तयदो उक्कस्सजोगो उरि पुवकोडितिभागावसेसे सत्तमाए पुढवीए रइएसु आउअबंधक्खमो सो तेजइयसरीरणोकम्मस्स उक्कस्सियं दिदि बंधदि त्ति वत्तम्वं, अण्णहा पुवकोडाउओ चेव बंधदि ति णियमस्त फला - भावादो। किमट्ठ पुवकोडाउओ चेव बंधाविज्जवि? तत्थ उक्कस्सजोगपरावत्तणवाराणं पउरमुवलंभादो । तं पि कुदो गव्वदे? अंतोमुत्तं मोतूण विदियपुवकोडिणिद्देसण्णहाणववत्तीदो। जदि एवं तो पुवकोडिआउएसु चेव भमाडिय तेजइयसरीरणोकम्मस्स उक्कस्ससंचओ किण्ण कीरदे ? ण, बहुवारं कालं कादूगुप्पज्जमाणस्स अपज्जत्तजोगेहि थोवदव्वसंचयप्पसंगादो । रइएसु दोहि पुवकोडीहि देसूणाहि ऊणतेत्तीससागरोवमाउअं बंधावेदव्वं, अण्णहा रइयचरिमसमए छावद्धिसागरोवमाणं परिसमत्तिविरोहादो। कमेण कालगदसमाणो अधो सत्तमाए पुढवीए उववण्णो। ४६१ । करता हुआ है वही तैजसशरीर नोकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है ऐसा नहीं ग्रहण करना चाहिए, किन्तु जो पूर्वकोटिकी आयुवाला पर्याप्त और उत्कृष्ट योगवाला जीव आगे पूर्वकोटिके विभाग शेष रहनेपर सातवीं पृथिवीके नारकियोंकी आयुका बन्ध करने में समर्थ है वह तेजसशरीर नोकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए । अन्यथा पूर्वकोटिकी आयुबाला बांधता है इस प्रकारके नियम करने का कोई फल नहीं रहता। शंका- पूर्वकोटिकी आयु वाले जीवके ही तेजसशरीरकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध क्यों कराया है ? समाधान- क्योंकि वहां पर उत्कृष्ट योगके परावर्तनके बार प्रचुरतासे उपलब्ध होते है। शंका- यह भी किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान- अन्यथा अन्तर्मुहुर्तको छोडकर उससे भिन्न पूर्वकोटि पदका निर्देश नहीं बन सकता, इससे ज्ञान होता है कि उत्कृष्ट योगके परावर्तनके बार प्रचुरतासे वहीं पर उपलब्ध होते हैं। __ शंका- यदि ऐसा है तो पूर्वकोटिकी आयुवालों में ही भ्रमण कराकर तेजसशरीर नोकर्म का उत्कृष्ट संचय क्यों नहीं प्राप्त करते ? ___ समाधान- नहीं, क्योंकि बहुत बार मरकर उत्पन्न होनेवाले जीवके अपर्याप्त योगोंके द्वारा स्तोक द्रव्यके संचयका प्रसंग प्राप्त होता है । नारकियोंकी आयुका बन्ध कराते समय कुछ कम दो पूर्वकोटि कम तेतीस सागप्रमाण आयकर्मका बन्ध कराना चाहिए, अन्यथा नारकीके अन्तिम समयमें छयासठ सागरकी परिसमाप्ति होने में विरोध आता हैं । वह क्रमसे मरा और नीचे सातवीं पृथिवीमें उत्पन्न हुआ।। ४६१ ।। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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