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________________ ५, ६, १६७.) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणाए कालपरूत्रणा (२७९ वेदाणुवादेण इत्थिवेदे बिसरीराणं पंचिदियपज्जत्तभंगो। तिसरीराणं फेवचिरं का० होंति ? णाणाजीवं प० सव्वद्धा। एगजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० पलिदोवमसदपुधत्तं। चदुसरीरा ओघं । एवं पुरिसवेदाणं । उक्कस्सेण सागरोवमसदपुधत्तं। णवंसयवेदा ओघं । अवगदवेदा तिसरीरा केवचिरं का० हति ? णाणाजीवं प० सव्वद्धा । एगजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० पुवकोडी देसूणा। कसायाणुवादेण कोध माण-माया-लोभ कसाइसु बिसरीरा चदुसरीरा ओघं । तिसरीराणं मणोजोगिभंगो । अकसाईणमवगदवेदभंगो। णाणाणुवादेण मदि-सुदअण्णाणीसु बिसरीरा तिसरीरा चदुसरीरा ओघं । विहंगणाणी तिसरीरा केवचिरं का० होंति ? णाणाजीवं प० सव्वद्धा। एगजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तूणतेत्तीससागरोवमाणि । चदुसरीरा ओघं। आभिणिसुद-ओहिणाणीसु बिसरीराणं पुरिसवेदभंगो। तिसरीरा केवचिरं का० होंति ? णाणाजीवं प० सव्वद्धा । एगजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० छावद्विसागरोवमाणि सादिरेयाणि । तं जहा- एगो मिच्छाइट्ठी दलिंगी अंतोमुत्तब्भहियअट्ठारस वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदी जीवोंमें दो शरीरवालोंका भंग पंचेद्रिय पर्याप्तकोंके समान है । तीन शरीरवालोंका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सौ पल्य पृथक्त्वप्रमाण है। चार शरीरवालोंका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार पुरुषवेदी जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें तीन शरीरवालोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट काल सौ सागरपृथक्त्वप्रमाण है। नपूंसकवेदी जीवोंका भंग ओघके समान है । अपगतवेदी जीवोंमें तीन शरीरवालोंका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। कषायमार्गणाके अनुवादसे क्रोधकषायवाले, मानकषायवाले, मायाकषायवाले और लोभकषायवाले जीवोंमें दो शरीरयाले और चार शरीरवाले जीवोंका भंग ओघके समान है। तीन शरीरवाले जीवोंका भंग मनोयोगी जीवोंके समान है । अकषायी जीवोंका भंग अपगतवेदवाले जीवोंके समान है। ज्ञानमार्गणाके अनुवादसे मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें दो शरीरवाले, तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंका भंग ओघके समान है। विभंगज्ञानियों में तीन शरीरवाले जीवों का कितना काल है ? नाना जीवों की अपेक्षा सर्वदा काल है । एक जीवका अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्त कम तेतीस सागर है । चार शरीरवालों के कालका भंग ओघके समान है। अभिनीबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों में दो शरीरवाले जीवों के भंग पुरूषवेदो जीवो के समान है। तीन शरीरवाले जीवो का कितना काल है ? नाना जीवों की अपेक्षा सर्वदा काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर है । यथा- एक मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी अन्तर्मुहूर्त अधिक ON अ० का० प्रत्यो: ' मणपज्जवभंगो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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