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________________ ५, ६, २७१ ) बंषणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए अणंतवणिधा ( ३४३ णिरंतरं णो अच्छंति। तेण संचयमस्सिदूण अणंतरोवणिधाणिए संभवो पत्थि । एग. समयपबद्धमस्सिदूण वि अणंतरोवणिधाए ण संभवो अस्थि । कुदो? सव्वकम्मपढमणि. सेयाण मेत्यथ संभवाभावादो सव्वकम्मचरमणिसेयाणमेयदिदीए णिवावाभावादो च । तं जहा- कम्मट्टिदिपढमसमयप्पहुडि उवरि दसवस्ससदाणि गंतूण हस्स-रदिपुरिसवेवदेवगइ-देवगइपाओगाणुपुस्वि-समचउरसंठाण बज्जरिसहवइरणारायणसरीरसंघडणपसत्यविहायगइ-थिर-सुभ-सुभग-सुस्सर आवेज्ज-जसगित्ति--उच्चागोव पण्णासहं (दसियाणं) पयडोणं पढमणिसेया* होंति। तत्तो उवरि बेवस्ससदाणि गंतूण बिदियसंठाग बिवियसंघडणाणं बारसियाणं बेपयडीणं पढमणिसेया होंति । पुचिल्लजिसेयकलावादो संपहियणिसेयकलाओ संखेज्जभागभहिओ। १५, १७ । तत्तो उवरि वेवस्ससदाणि गंतूण तदिय-संठाणतदियसंघडणबेपयडीणं चोद्दसियाणं पढमणिसेया णिवदंति १९ । ताधे असंखेज्जगणहीणतं फिट्टिदूण णिसेयकलावस्स संखे०भाग भहियत्तं होदि । तदो वस्ससदमुवरि गंतूण मणुसगइ-मणसगइपाओग्गाणुपुग्विइत्थिवेद-सादावेदणीयपयडीणं पण्णारसियाणं पढमणिसेया होंति २३ । ताधे णिसेगो संखेज्जभागब्भहिओ होदि । चउत्थसंठाण-चउत्थसंघडणपयडीणं सोलसियाणं तत्तो उवरि वस्ससदं गंतूण पढमणिसेया होंति २५ । ताधे णिसेयकलाओ हुए सब समयप्रबद्धोंके प्रदेश गोपुच्छाकाररूपसे निरन्तर नहीं रहते है । इसलिए संचयका माश्रय लेकर अनन्तरोपनिधा सम्भव नहीं है । तथा एक समयप्रबद्धका आश्रय लेकर भी अनन्तरोपनिधा सम्भव नहीं है, क्योंकि, सब कर्मों के प्रथम निषेक यहाँ सम्भव नहीं हैं तथा सब कर्मोंके अन्तिम निषेकोंका एक स्थितिमें मिपात नहीं होता। यथा-कर्मस्थितिके प्रथम समयसे लेकर ऊपर एक हजार वर्ष जाकर हास्य, रति, पुरुषवेंद, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, समचतुरस्र संस्थान,वज्रर्षभनाराचसंहनन, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश:कीर्ति और उच्चगोत्र इन पन्द्रह दसिय प्रकृतियों के प्रथम निषेक होते हैं १५ । वहाँसे ऊपर दो सौ वर्ष जाकर द्वितीप संस्थान और द्वितीय संहनन इन बारसिय दो प्रकृतियोंके प्रथम निषेक होते हैं १७ । पहलेके निषेककलापसे साम्प्रतिक निषेककलाप संख्यातवें भागप्रमण अधिक होता है । वहांसे ऊपर दो सौ वर्ष जाकर तृतीय संस्थान और तृतीय संहनन इन चोदसिय दो प्रकृतियों के प्रथम निषेक निपतित होते हैं १९ । तब असंख्यात गुणहीनत्व मिटकर निषेककलापका सख्यातवां भाग अधिक होता है । वहाँसे सौ वर्ष पर जाकर मनुष्यगति मनुष्यगत्यानुपूर्वी, स्त्रीवेद और सातावेदनीय इन पन्द्ररसीय प्रकृतियोंके प्रथम निषेक होते हैं २३ । तब निषेक संख्यातवें भाग अधिक होता है। वहाँसे सौ बर्ष ऊपर जाकर चतुर्थ सस्थान और चतुर्थ संहननके प्रथम निषेक होते हैं २५ । तब निषेककलाप संख्यातवें भागप्रमाण अधिक ४ प्रतिष 'अणंतरोवणिधाणिसेगं एग-' इति पाठ।। ताप्रती 'णिसेयाण मेत्थ' इति पाठः ता०प्रतो 'उच्चागोदसोलसण्हं ( दसियाणं ) पयडीणं पढमणिसेया ' आ० प्रती उच्चगोद तित्थयर कम्मद्विदिणिसेया ' मा०प्रती ' उच्चागोदसोलसहं पयडीणं पढमणिसेया' इति पाठा) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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