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________________ ३४२ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ६, २७१ तं विसेसहीणं । केत्तियमेत्तेण? णिसेगमागहारमेतेण पढमणिसेगे खंडिदे तत्थ एगखंडमेत्तेण । एत्थ णिसेगभागहारो केत्तिओ ? दोगुणहाणिमेत्तो। गुणहाणिपमाणं केत्तियं? पलिदो० असंखे० भागो । जं तदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं एगगोवच्छविसेसमेत्तेण। एवं यन्वं जाव कम्मढिविचरिमसमओ त्ति । अटुकम्मकलावे कम्मइयसरीरे संते एगसमयपबद्धं गाणासमयपबद्धे वा अस्सिदूण अणंतरोवणिधा ण सक्कदे वोत्तुं। तं जहा-ताव णाणासमयपबद्ध अस्सिदण अणंतरोवणिधा वोत्तं सक्किज्जदे । कुदो ? जेण कसायपाहुडे एगसमयपबद्धस्स कम्मढिदिणिसित्तस्स समयाहियावलियप्पहुडि गिरंतरमणसमयवेदगकालो लभदि पलिदो० असंखे० भागमेत्तो । पुणो तदणंतरउवरिमसमयमादि कादूण तस्समयपबद्धस्स अवेदगकालो होदि । जहण्णेण एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागमेत्तो णिरंतरमवेदगकालो होदि । एवमेगसमयपबद्धस्स वेदग-अवेदगकालाणि गच्छंति जाव कम्मद्विदिचरिमसमओ त्ति । जहा कम्मट्टिदीए एगसमयपबद्धस्स वेदगकालो सांतरो णिरंतरो च होदि तहा सेससव्व समयपबद्धाणं वेदगकालेण सांतरेण णिरंतरेण च होदव्वं, समयपबध्दत्तं पडि भेदाभावादो। तम्हा कम्मट्टिदीए णिसित्तसव्वसमयपबध्दाणं पदेसा गोवुच्छागारेण निषिक्त होता है वह विशेष हीन है। कितना हीन है ? निषेकभागहारसे प्रथम निषेकके भाजित करने पर वहां जो एक भाग लब्ध आवे उतना हीन है। शंका-- यहाँ निषेकभागहारका प्रमाण कितना है ? समाधान-- दो गुणहानिमात्र उसका प्रमाण है। शंका-- गुणहानिका प्रमाण कितना है ? समाधान-- गुणहानिका प्रमाण पल्यके असंख्यातवें भागमात्र है । जो तृतीय समयमें प्रदेशाग्र निषिक्त होता है वह एक गोपुच्छ विशेष मात्र विशेष हीन है। इस प्रकार कर्मस्थितिके अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए । शंका-- आठों कर्मोके समुदायरूप कार्मणशरीरके होनेपर एक समयप्रबद्ध या नाना समयप्रबद्धोंका आश्रय लेकर अनन्तरोपनिधाका कथन करना शक्य नहीं है। यथा-नाना समयप्रबद्धोंका आश्रय लेकर तो अनंतरोपनिषाका कथन करना इसलिए शक्य नहीं है, क्योंकि, यतः कषायप्राभूतमें कर्मस्थितिमें निषिक्त हुए एक समयप्रबद्धका एक समय अधिक आवलिसे लेकर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक प्रत्येक समयमें निरंतर वेदककाल प्राप्त होता है। पुनः तदनंतर उपरिम समयसे लेकर उस समय प्रबद्ध का अवेदक काल होता है। जघन्य रूपसे एक समय तक और उत्कृष्टरूपसे पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक निरन्तर अवेदक काल होता है। इस प्रकार एक समयप्रबद्धकी कर्मस्थितिके अन्तिम समय तक निरन्तर वेदककाल और अवेदककाल होते हुए जाते हैं। जिस प्रकार कर्मस्थिति में एक समयप्रबद्ध का वेदककाल सांतर और निरन्तर होता है उसी प्रकार शेष सब समयप्रबद्धोंका वेदककाल सांतर और निरंतर होना चाहिए, क्योंकि, समयप्रबद्धपनेकी अपेक्षा उनमें कोई भेद नहीं है। इसलिए कर्मस्थितिमें निषिक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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