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________________ ५, ६, ९२.) बंधणाणुयोगद्दारे पत्तेयसरीरदव्ववग्गणा ( ८३ होति अहिया ण होंति ति कधं णव्वदे ? अविरुद्वाइरियवयणादो । ते च तेउक्काइएसु चेव बहुआ लब्भंति ण अण्णत्य। तेण वल्लरिवाहादिसु एगिगालो चेव पहाणीकओ । तत्थ गुणिदकम्मंसिया सुटु जदि बहुआ होंति तो आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ता चेव, अवसेसा सव्वे अगुणिदकम्मंसिया । एसा सत्तारसमीरी वग्गणा १७ अग्गेज्झा सभेयणत्तादो।। पत्तयसरीरदव्ववग्गणाणमुवरि धवसुण्णदखवग्गणा णाम। ९२ । उक्कस्सपत्तेयसरीरवग्गणाए एगरूवे पक्खित्ते बिदियधुवसुण्णदव्ववग्गणाए सव्वजहणिया धुवसुण्ण दव्ववग्गणा होदि । तदो रूवुत्तरकमेण परिवाडीए सव्वजीवेहि अणंतगुणमेत्तधवसुण्णदव्ववग्गणासु गदासु उक्कस्सिया धुवसुण्णदव्ववग्गणा शंका- एक बन्धनबद्ध इतने ही जीव उपलब्ध होते हैं अधिक नहीं होते हैं यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान- अविरुद्ध आचार्योंके वचनोंसे जाना जाता है। और वे तैजसकायिकोंमें ही बहुत उपलब्ध होते हैं अन्यत्र नहीं उपलब्ध होते, इसलिए लता दाह आदिमें एक अंगारा ही प्रधान किया है । वहां गुणितकौशिक जीव यदि बहुत होते हैं तो आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होते हैं । बाकीके सब गुणितकौशिक नहीं होते। यह सत्रहवीं वर्गणा है। विशेषार्थ- पहले एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट प्रत्येकशरीर द्रव्यवर्गणा कह आये हैं। यहां एक बन्धनबद्ध नाना जीवोंकी अपेक्षा यह वर्गणा बतलाई गई है। जिनका शरीर पृथक पृथक् अर्थात् प्रत्येक होकर भी परस्पर जुडा हुआ होता है वे एक बन्धनबद्ध जीव माने गये हैं । ऐसे पृथिवीकायिक जीव पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण हो सकते हैं और अग्निकायिक जीव इनसे भी अधिक हो सकते हैं जो एक पिण्डमें बद्धनबद्ध रहते हैं और इससे इन सबको मिलकर एक प्रत्येकवर्गणा बनती है । साधारण शरीरसे इस प्रत्येक शरीरमें बहुत अन्तर होता है। वहां शरीर एक ही होता है किन्तु यहां सबके अलग अलग शरीर होते हैं। मात्र प्रत्येकशरीर एक दूसरेसे सम्बद्ध रहते हैं और इसीसे इन्हें एक बन्धनबद्ध मानकर इनकी एक वर्गणा मानी गई है । एक तेजस्कायिक जीवके औदारिक, तैजस और कार्मणशरीर तथा इनके विस्रसोपचयोंका जितना उत्कृष्ट संचय हो सकता हो उसे असंख्यातगुणित आवलिवर्गसे गुणित करनेपर या तत्प्रायोग्य असंख्यातसे गुणित करनेपर उत्कृष्ट प्रत्येकशरीर द्रव्यवर्गणाका प्रमाण आता है। यहां अन्तिम समयवर्ती नारकीके उत्कृष्ट संचयसे आगे की प्रक्रिया द्वारा इसी वर्गणाके उत्पन्न करने की विधि कही गई है। यह नाना प्रत्येकशरीर द्रव्यवर्गणारूप होकर भी एक बन्धनबद्ध होनेसे एक प्रत्येकशरीर द्रव्य वर्गणा मानी गई है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । प्रत्येकशरीर द्रव्यवर्गणाओंके ऊपर ध्रवशन्य वर्गणा है ।। ९२ ॥ उत्कृष्ट प्रत्येकशरीर वर्गणामें एक अंकके मिलाने पर दूसरी त्रुवशून्य वर्गणा सम्बन्धी सबसे जघन्य ध्रुवशून्य द्रव्यवर्गणा होती है । अनन्तर एक एक अधिकके क्रमसे आनुपूर्वीसे सब जीवोंसे अनन्तगुणी ध्रुवशून्य वर्गणाओंके जाने पर उत्कृष्ट ध्रुवशून्यवर्गणा उत्पन्न होती है। अ० आo प्रत्योः 'सत्तरसमी ' इति पाठः I &Personal use Only Jain Education Interrational www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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