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________________ ५, ६, ९३.) बंधणाणुयोगद्दारे बादरणिगोददव्ववग्गणा (८७ सेडीए मदेसु खीणकसायचरिमसमए मरमागजीवा अर्णता होति । होता वि हेट्ठा दुचरिमसमएसु मदजीवेहितो असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागो। खीणकसायचरिमसमयपुलवियाओ आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ ति सुत्ते भणिदं । जदि पुन्वत्तरगणगारो पुलवियाणं होदि तो एदं ण घडदे; दुचरिम. समए मदजीवपुलवियासु आवलियाए असंखेज्जदिमागमेत्तासु पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागेण गणिदासु खीणकसायचरिमसमए पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागमेत्तपुलवोणमुवलंभादो। एक्केक्कम्हि खंधे अंडराणि असंखेज्जलोगमेत्ताणि । तत्थ एक्केक्कम्हि अंडरे आवासा असंखेज्जलोगमेत्ता। तत्थ एक्केक्कम्हि आवासे पुलवियाओ असंखेज्जलोगमेत्ताओ ति पुवं परूविदं। तेण खोणकसायचरिमसमए आवलियाए असंखेज्जदिभागमेताओ पुलवियाओ अस्थि त्ति ण घडदे। ण च तत्थतणपुलवियाणमसंखेज्जा भागा खीणकसायट्ठाणे णट्टा त्ति वोत्तुं जुत्तं; सगसरीरट्टियणिगोदजीवे पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागेण खंडिय तत्थ एगखंडम्मि पढें पुलवियाणमसंखेज्जाणं भागाणं विणासवि. रोहादो। ण च चरिमसमए मदजीवा दुरिमादिसमएसु मदजीवाणमसंखज्जदिभागो; गुणसेडिमरणपरूवणाए सह विरोहादो? एस्थ परिहारो वुच्चदे- खीणकसायसरीरे उक्कस्सेण जहण्णेण विपुलवियाओ आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ चेव ध्यानके द्वारा प्रति समय असख्यातगुणे श्रेणि रूपसे जीवोंके मरने पर क्षीणकषायके अन्तिम समयमें मरनेवाले जीव अनन्त होते हैं। इतने होते हुए भी पहले द्विचरम समय में मरनेवाले जीवोंसे असंख्यातगुणे होते हैं। गुणकार क्या है ? पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार है। शंका-- क्षीणकषायके अन्तिम समयमें पुलवियाँ आवलिके असख्यातवें भागप्रमाण होती हैं ऐसा सूत्रमें कहा गया है। यदि पूर्वोक्त गुणकार पुलवियोंका होता है तो यह कथन घटित नही होता, क्योंकि, द्विचरम समय में मृत जीवोंकी आवलिके असंख्यातवें भागमात्र पुलवियोंको पल्योपमके असंख्यातवें भागसे गुणित करनेपर क्षीणकषायके अन्तिम समयमें पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र पुलवियाँ उपलब्ध होती हैं। एक एक स्कन्धमें अण्डर असंख्यात लोकप्रमाण होते हैं। तथा एक एक अण्डरमें आवास असंख्यात लोकप्रमाण होते हैं और एक एक आवासमें पुलवियाँ असंख्यात लोकमात्र होती हैं इस प्रकार पहले कह आये हैं। इसलिए क्षीणकषायके अन्तिम समयमें आवलिके असंख्यातवें भागमात्र पुलवियाँ हैं यह वचन घटित नहीं होता है । वहाँकी पुलवियोंका असंख्यात बहुभाग क्षीणकषाय गुणस्थानमें नष्ट हो गया है यह कहना युक्त नहीं है। क्योंकि, अपने शरीरमें स्थित निगोद जीवोंको पल्योपमके असंख्यातवें भागसे भाजित कर वहाँ लब्ध एक भागके नष्ट होनेपर पुलवियोंके असंख्यात बहुभागका विनाश मानने में विरोध आता है। अन्तिम समयमें मरे हुए जीव द्विचरम आदि समयोमें मरे हुए जीवोंके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, इस कथनका गुणश्रेणि क्रमसे मरण प्ररूपणाके साथ विरोध आता है। __समाधान-- यहाँ इस शंकाका समाधान करते हैं। क्षीणकषाय जीवके शरीरमें उत्कृष्ट ४ ता० प्रती । उक्कस्सेण जहण्णा (ण) कि' अ० प्रती उक्कस्साण जहण्णाण वि' आ० प्रती । उक्कस्सेण जहण्णाणं वि ' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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