SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छवखंडागमे वग्गणा - खंड ८८ ) होंति । एगबंधणबद्धाओ* असंखेज्जलोगमेत्ताओ कत्थ वि णत्थि । जहण्णाहियारादो आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ चेव पुलवियाओ होंति त्ति घेत्तव्वं । ण च पुव्वतवयणेण सह विरोहो, खोणकतायं मोत्तूण अण्णखंधे अवलबिय तत्थ परूविदतादो। ण च सव्वखंधेसु पुलवियाओ असंखेज्जलोगमेत्ताओ चैव अस्थि त्ति नियमो; नियमाय सुत्तवक्खाजस्णुवलंभादो ( ५, । पहिलवाओ सिदूण केहि वि आइरिएहि निगोदाणं मरणक्कमो परुविदो तं वत्तइस्साम । तं जहा - खीणकसायपढमसमए मरतपुलवियाओ थोवाओ। विदिय. समए मरंत पुलवियाओ विसेसाहियाओ । तदियसमए विसेसाहियाओ । एवं विसे. साहिया विसेसाहिया जाव आवलिपुधत्तं त्ति । विसेसो पुण आवलियाए असंखेज्जदिभागपडिभागो | तेण परं संखेज्जभागन्भहियाओ जाव विसेसाहियमरणचरिमसमओ ति । तदो गुणसेडिमरणपढमसमए संखेज्जगुणाओ मरति । एवं संखेज्जगुणाओ संखेगुणाओ मरंति जाव खीणकसायकालस्स आवलियाए असंखेज्जदिभागो सेसोत्ति ते परमसंखेज्जगुणाओ असंखेज्जगुणाओ मरंति जाव खीणकसायचरिमसमओ गुणगारेण पुण असंखेज्जगुणमरणम्हि सव्वत्थ आवलियाए असंखेज्जदिभागेण और जघन्य पुलवियाँ आवलिके असख्यातवें भागमात्र ही होती हैं । एक बन्धनबद्ध पुलवियाँ असंख्यात लोकमात्र कहीं भी नहीं होतीं । यहाँ जघन्यका अधिकार होनेसे आवलिके असंख्यातवें भागमात्र ही पुलवियाँ होतीं हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिए। पूर्वोक्त वचनके साथ विरोध आता है यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, क्षीणकषायको छोड़कर अन्य स्कन्धका अवलम्बन लेकर वहाँ कथन किया है । और सब स्कन्धों में पुलवियाँ असंख्यात लोकमात्र ही होती है ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि, इस प्रकारके नियमको करनेवाले सूत्रका व्याख्यान उपलब्ध नहीं होता । ६, ९३. Jain Education International For Private & Personal Use Only अब पुलवियों का अवलम्बन लेकर कितने ही आचार्य निगोद जीवोंके मरण क्रमका कथन करते है उसे बतलाते हैं । यथा क्षीणकषायके प्रथम समय में भरनेवाली पुलवियाँ स्तोक हैं । दूसरे समय में भरनेवाली पुलवियाँ विशेष अधिक हैं। तीसरे समय में विशेष अधिक हैं । इस प्रकार आवलि पृथक्त्व काल जाने तक विशेष अधिक विशेष अधिक है। विशेषका प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागका प्रतिभाग स्वरुप है । इससे आग विशेषाधिकके क्रमसे मरण करने के अन्तिम समय तक संख्यातवें भाग अधिक हैं । अनन्तर गुणश्रेणि रूपसे मरण करने के प्रथम समय में संख्यातगुणी मरणको प्राप्त होती हैं । इस प्रकार क्षीणकषायके कालमें आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल शेष रहने तक संख्यातगुणी संख्यातगुणी मरणको प्राप्त होती हैं । इससे आगे क्षीणकषायके अन्तिम समय तक असंख्यातगुणी असंख्यातगुणी मरणको प्राप्त होती हैं । जहाँ असंख्यातगुणी पुलवियोंका मरण कहा है वहाँ गुणकार आवलिका असंख्यातवां भाग ता०आ० प्रत्यो: ' एत्थ बंधणबद्धाओ ' इति पाठ: 1 ★ ता०प्रती 'णियभो, (नियमाय ) सुक्खा ( णा - ) णामणुवलंभादो' अ०आ०प्रत्यो: 'नियमो, णित्रमा यसुत्तवक्खाणमणुवलंभादो' इति पाठ: 1 1 1 1 www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy