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________________ ५, ६, ९२.) बंधणाणुयोगद्दारे बादरणिगोददव्ववग्गणा ( ८९ होदव्वं ; अण्णहा खीणकसायचरिमसमए आवलियाए असंखेज्जदिभागमेतपुलवियाणमणुवबत्तीदो । अणेण विहाणेण गंतूण खीणकसायचरिमसमए आवलियाए असंखेज्ज. दिभागमेत्तपुलवियाओ मदावसिट्टाओ ; हेट्टा दुचरिमादिसमएसु णटुपुलवियाहितो असंखेज्जगुणाओ उव्वरंति ; गणसेडिमरणगहाणववत्तीदो । एसो पुलवियाणमावलि. याए असंखेज्जदिभागो गणगारो जो पढिदो सो ण घडदे; खीणकसायचरिमसमए णटुपुलवियाणं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागपमाणत्तप्पसंगादो । कुदो? जहण्णपरित्तासंखेज्जं विरलिय आवलियाए असंखेज्जदिभागं रूवं पडि दादूण अण्णोण्णण गुणिदे वि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागपमाणप्पत्तीदो। किमट्ठभेदे एत्थ मरंति? ज्झाणेण णिगोदजीवप्पत्तिट्टिदिकारणणिरोहादो। ज्झाणेण अणंताणंतजीवरासिणिहताणं कथं णिवई ? अप्पमादादो । को अप्पमादो ? पंच महव्वयाणि पंच समदीयो तिणि गुत्तीओ हिस्सेसकसायाभावो च अप्पमादो णाम । हिंसा पाम पाण-पाणिवियोगो । तं करेंताणं कथहिंसालक्खणपंचमहव्वय होना चाहिए, अन्यथा क्षीणकषायके अन्तिम समयमें आवलिके असंख्यातवें भागमात्र पुलवियाँ उपलब्ध नहीं होतीं । इस विधिसे जाकर क्षीणकषायके अन्तिम समयमें जो आवलिके असंख्यातवें भागमात्र पुलवियाँ मरनेसे अवशिष्ट रहती हैं वे पीछे द्विचरम आदि समयोंमें नष्ट हुई पुलवियोंसे असंख्यातगुणी शेष रहती हैं ! अन्यथा गुणश्रेणि मरण नहीं बन सकता । किन्तु यहाँ यह जो पुलवियोंका आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार कहा है वह घटित नहीं होता, क्योंकि, इस कयनसे क्षीण कवायके अन्तिम समयमें नष्ट हुई पुलवियाँ पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होती हैं। कारण कि जघन्य परीतासंख्यातका विरलन कर और आवलिके असंख्यातवें भागको विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति देकर परस्पर गुणा करने पर भी पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाणकी उत्पत्ति होती है। शंका-ये निगोद जीव यहाँ क्यों मरणको प्राप्त होते हैं ? समाधान- क्योंकि, ध्यानसे निगोद जीवोंकी उत्पत्ति और उनकी स्थितिके कारणका निरोध हो जाता है। शंका-ध्यानके द्वारा अनन्तानन्त जीवराशिका हनन करनेवाले जीवोंको निवृत्ति कैसे मिल सकती है ? समाधान-अप्रमाद होनेसे । शंका-अप्रमाद किसे कहते हैं ? समाधान-पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति और समस्त कषायोंके अभावका नाम अप्रमाद है। शंका- प्राण और प्राणियोंके नियोगका नाम हिंसा है । उसे करनेवाले जीवोंके अहिंसा लक्षण पाँच महाव्रत कैसे हो सकते हैं ? प्रतिषु पदिदो इति पाठ 1 * अ-आ प्रत्योः ' णिवत्ती ' इति पाठ! 1 Jain Education International For Private & Persona. Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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