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________________ ५, ६, ७५८ ) बंधणाणुयोगद्दारे चूलिया ( ५५३ कम्मइयवस्ववग्गणा णाम का ।। ७५६ ।।। कम्मइयवश्ववग्गणा अट्ठविहस्स कम्मस्स गहणं पवत्तवि ७५७। सुगमाणि एदाणि सुत्ताणि । एदेसि सुत्ताणं णिण्णयट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि णाणावरणीयस्स दंसणावरणीयस्स वेयणीयस्स मोहणीयस्स आउअस्स णामस्स गोदस्स अंतराइयस्स जाणि दव्वाणि घेत्तण णाणावरणीयत्ताए दंसणावरणीयत्ताए वेयणीयत्ताए मोहणीयत्ताए आउअत्ताए णामत्ताए गोदत्ताए अंतराइयत्ताए परिणामेदूण परिणमंति जीवा ताणि दव्वाणि कम्मइयवस्ववग्गणा णाम ॥ ७५८ ॥ णाणावरणीयस्स जाणि पाओग्गाणि दव्वाणि ताणि चेव मिच्छत्तादिपच्चएहि पंचणाणावरणीयसरूवेण परिणमंति ण अण्णेसि सरूवेण । कुदो ? अप्पाओग्गत्तावो। एवं सम्वेसि कम्माणं वत्तव्वं, अण्णहा गाणावरणीयस्स जाणि वन्वाणि ताणि घेत्तूण मिच्छाविपच्चएहि जाणावरणीयत्ताए परिणामेदूण जीवा परिणमंति त्ति सुत्ताणववत्तीदो । जदि एवं तो कम्मइयवग्गणाओ अट्ठे ति किण्ण परूविदाओ? ण, अंतरा. भावेण तथोवदेसाभावादो। एदाओ अट्ट वि वग्गणाओ कि पुध पुध अच्छंति आहो कार्मणद्रव्यवर्गणा क्या है ।। ७५६ ।। कार्मणद्रव्यवर्गणा आठ प्रकारके कर्मका ग्रहणकर प्रवृत्त होती है । ७५७ । ये सूत्र सुगम हैं। अब इन सूत्रोंका निर्णय करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तरायके जो द्रव्य हैं उन्हें ग्रहणकर ज्ञानावरणरूपसे, दर्शनावरणरूपसे, वेदनीयरूपसे, मोहनीयरूपसे, आयुरूपसे, नामरूपसे, गोत्ररूपसे और अन्तरायरूपसे परिणमा कर जीव परिणमन करते हैं, अतः उन द्रव्योंकी कार्मणद्रव्यवर्गणा संज्ञा है । ७५८ । ज्ञानावरणीयके योग्य जो द्रव्य हैं वे ही मिथ्यात्व आदि प्रत्ययोंके कारण पाँच ज्ञानावरणीयरूपसे परिणमन करते हैं, अन्यरूपसे वे परिणमन नहीं करते, क्योंकि, वे अन्यके अयोग्य होते हैं । इसी प्रकार सब कर्मोंके विषयमें कहना चाहिए, अन्यथा ज्ञानावरणीयके जो द्रव्य हैं उन्हें ग्रहण कर मिथ्यात्व आदि प्रत्ययवश ज्ञानावरणीयरूपसे परिणमाकर जीव परिणमन करते हैं यह सूत्र नहीं बन सकता है। शंका-- यदि ऐसा है तो कार्मणवर्गणायें आठ हैं ऐसा कथन क्यों नहीं किया है ? समाधान-- नहीं, क्योंकि, अन्तरका अभाव होनेसे उस प्रकारका उपदेश नहीं पाया जाता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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