SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 274
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५, ६, १४१ ) बंधाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणाए संतपरूवणा ( २४१ एत्थ असरीराणमभावो पुव्वं व वत्तव्वो । ओघम्मि आहारसरीरुदओ अत्थि, एत्थं तं णत्थि तेण ओघत्तं ण जुज्जदे ? ण, ओरालिय सरीरुदएण सह उदयमागच्छमाणवेउब्बियसरीरोदयं पडुच्च एदेसि चदुसरीरत्तणिद्देसो । तत्थ दोहि पयारेहि चदुसरीरत्तं संभवदि, एत्थ ण संभवदि, तदो ओघेण सह अस्थि भेदों त्ति भणिदे ण, जेण केण वि पयारेण संभवमाणचदुसरीरत्तावेक्खाए भेदाभावादो । बादरएइंदियअपज्जता सुहुमेइंदिया तेसि पज्जता अपज्जता बीइंदिया तीइंदिया चउरिदिया तस्सेव पज्जत्ता अपज्जत्ता पंचिदियअपज्जत्ता णेरइयभंगो ॥ १४१ ॥ रइयाणं व बिसरीरा तिसरीरा अस्थि त्ति भणिदं होंदि । चदुसरीरा णत्थि, एदेसु विउव्वणसरीराभावादो आहारसरीराभावादो च । कायाणुवादेण पुढविकाइया आउकाइया वणव्फ विकाइया णिगोदजीवा तेसि बादरा सुहुमा पज्जत्ता अपज्जत्ता बादरवप्फदिकाइयपत्तेयसरीरा तेसि पज्जत्ता अपज्जत्ता बादरते उक्काइयअपज्जत्ता बादर यहां पर अशरीरी जीवोंका अभाव पहले के समान कहना चाहिए । शंका- ओघ में आहारशरीरका उदय है और यहां वह नहीं है, इसलिए यहां ओघपता नहीं बनता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि औदारिकशरीर के उदयके साथ उदयको प्राप्त होनेवाले वैकिकिशरीर के उदयकी अपेक्षा इनके चार शरीरपनेका निर्देश किया है । शंका- वहां दोनों प्रकारसे चार शरीरपना सम्भव है पर यहां सम्भव नहीं है, इसलिए ओघ से यहां भेद है ही ? समाधान- नहीं, क्योंकि जिस किसी भी प्रकारसे सम्भव चार शरीरपनेकी अपेक्षा भेद नहीं है, इसलिए यहाँ ओघपना बन जाता है | बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय और उनके पर्याप्त व अपर्याप्त, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय तथा इन तीनोंके पर्याप्त व अपर्याप्त और पन्चेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंमें नारकियोंमें समान भग्न है ॥ १४१ ॥ नारकियों के समान दो शरीरवाले और तीनशरीरवाले होते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । चार शरीरवाले नहीं होते, क्योंकि इनमें विक्रिया करनेवाले शरीरका अभाव है और आहारकशरीरका अभाव है । कायमार्गणा अनुवादसे पृथिवीकायिक, जलकायिक, वनस्पतिकायिक, निगोद जीव, उनके बादर और सूक्ष्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर, उनके प्रर्याप्त और अपर्याप्त, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, बादर For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy