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________________ ५०४) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ६ ६५२ जवमज्झस्सुवरिमसमए चत्तारि अपज्जतिमिल्लेवया जीवा विसेसहीणा। एवं विसेसहीणा विसेसहीणा होदूण उवरि आवलि. असंखे०भागमेत्तमद्धाणं गंतूण चत्तारिअपज्जत्तिपिल्लेवया जीवा समप्पंति । उप्पण्णसमयप्पहुडि आहारवग्गणादो अभवसिद्धिएहि अणंतगणं सिद्धाणमणंतभागमेत्तं पदेसपिडं घेत्तूण आहार-सरीरिदिय आणापाणपज्जत्तीओ जगवदेव पारंभिय तदो अंतोमहत्तं गंतूण आहारअपज्जत्ति समाणिय तदो अंतोमहत्तं गंतूण सरीरअपज्जत्ति समाणेदि । तदो अंतोमहुत्तं गंतूण पासिदियअपज्जत्ति समादि । तदो अंतोमहत्तं गंतूण आणपाणअपज्जत्ति समादि । तदो अंतोमहत्तं गंतूण चत्तारि वि अपज्जत्तीओ जगवं पिल्लेवेदि त्ति भणिदं होदि । एवं सव्वणिल्लेवणढाणाणं अत्थपरूवणा पुध पुध कायस्वा । एत्थ गुणहाणिअद्धाणस्स णाणागणहाणिसलागाणं च पमाणमावलि० असंखे० भागो। एत्थ एगा वि गुणहाणी गत्थि त्ति के वि आइरिया भणंति । एत्थ जवमज्झहेटिमअद्धाणादो उवरिमअद्धाणं सरिसमिदि के वि आइरिया भणंति । के वि विसेसाहियमिदि भणंति। के वि संखेज्जगणं, के वि असंखे०गणं ति। तेणेत्थ अम्हाणं ण णिच्छओ अस्थि । तदो जाणिऊण वत्तव्वं । तदो जवमज्झं गंतण बावरणिगोदजीवअपज्जत्तयाण* पिल्लेअपर्याप्तियों के निर्लेपन करनेवाले जीव विशेष हीन हैं। इस प्रकार विशेष हीन विशेष हीन होते हुए आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर चार अपर्याप्तियोंका निर्लेपन करनेवाले जीव समाप्त होते हैं। उत्पन्न होने के प्रथम समयसे लेकर आहारवर्गणामेंसे अभव्योंसे अनंतगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण प्रदेशपिण्डको ग्रहण कर आहार, शरीर, इन्द्रिय और आनापान पर्याप्तियोंको एकसाथ प्रारम्भ करके अनन्तर अन्तर्महुर्त जाकर आहार अपर्याप्तिको समाप्त कर फिर अन्तर्मुहुर्त जाकर शरीर अपर्याप्तिको समाप्त करता है। फिर अन्तर्मुहुर्त जाकर स्पर्शनेन्द्रिय अपर्याप्तिको समाप्त करता है। फिर अन्तर्मुहुर्त जाकर आनापान अपर्याप्तिको समाप्त करता है। फिर अन्तर्मुहर्त जाकर चारों ही अपर्याप्तियोंको एकसाथ निर्लेपित करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार सब निर्लेपनस्थानोंकी अर्थप्ररूपणा अलग अलग करनी चाहिए । यहाँ पर गुणहामिअध्वान और नानागुणहानिशलाकाओंका प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। यहाँ पर भी गुणहानि नहीं है ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। तथा यहाँ पर यवमध्यका उपरिम अध्वान अधस्तन अध्वानके समान है ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं । तथा कितने ही आचार्य विशेष अधिक है ऐसा कहते हैं। तथा कितने ही संख्यातगुणा और कितने ही असंख्यातगुणा कहते हैं, इस लिए इस विषयमें हमारा कोई निश्चय नहीं है, इसलिए जानकर कथन करना चाहिए । अनन्तर यवमध्य जाकर बादर निगोद अपर्याप्त जीवोंके आवलिके असख्यातवें है ता० प्रती 'विसेसाहिया 1 एवं ' इति पाठः । ता० प्रती -णिगोदअपज्जत्तयाणं ' इति पाठा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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