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________________ ५, ६, ६५२) बंधणाणुयोगदारे चूलिया ( ५०७ जिल्लेवणढाणाणि होति ति भाणिदव्वं । कि णिल्लेवणं णाम? आहार-सरीरिदियआणपाणअपज्जत्तीणं णिवत्ती पिल्लेवणं णाम । जदि अपज्जत्ती ण तिस्से णिवत्ती अस्थि, विप्पडिसेहादो? ण अपज्जत्तीए वि अपज्जत्तिसरूवेण णिप्पत्ति पडि विरोहाभावादो। ताणि च णिल्लेवणढाणाणि जवमझं गदाणि आवलियाए असंखेज्जदिभाग. मेत्ताणि होति । एवं कुदो वदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो। ण च पमाणं पमागंतरमवेक्खदे, अगवत्थापसंगादो । एत्थ जवमझसरूवपरूवणा कीरदे । तं जहाउप्पण्णपढमसमयप्पहुडि अंतोमत्तं गंतूण चदुण्णमपज्जत्तीर्ण सिग्धं णिवत्तया सुहमणिगोदअपज्जत्तया थोवा । ण च चत्तारि अपज्जत्तीओ वि जुगवं ण णिल्लेविज्जंति*, आहार सरीरिदिय-आणपाणपज्जत्तीणं कमेण: णिप्पण्णाणमक्कमेण पच्छा पिल्लेवणुवलंभादो । णिप्पत्ति-णिल्लेवणाणं भेदमरि भणिस्सामो। तदो सम. उत्तराए दिदीए णिवत्तिया विसेसाहिया । एवं विसेसाहिया विसेसाहिया जाव आवलियाए असंखेज्जभागमेत्तमद्धाणं गदं ति । पुणो तत्थ जवमज्झं होदि । सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवोंके निर्लेपनस्थान होते हैं ऐसा कहलाना चाहिए । शंका-- निर्लेपन किसे कहते हैं ? समाधान-- आहार, शरीर, इन्द्रिय और श्वासोछ्वास अपर्याप्तियोंकी निर्वृत्तिको निर्लेपन कहते हैं। शंका-- यदि अपर्याप्त है तो उसकी निर्वृत्ति नहीं होती, क्योंकि, अपर्याप्तिकी निर्वृत्ति होने का निषेध है ? समाधान-- नहीं, क्योंकि, अपर्याप्तिकी भी अपर्याप्तिरूपसे निष्पत्ति होने में कोई विरोध नहीं हैं। वे निर्लेपनस्थान यवमध्यको प्राप्त हुए आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं। शंका-- इस प्रकार किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-- इसी सूत्रसे जाना जाता है। और एक प्रमाण दूसरे प्रमाणकी अपेक्षा नहीं करता, क्योंकि, ऐसा मानने पर अनवस्थाका प्रसंग आता है। यहाँ पर यवमध्यके स्वरूपकी प्ररूपणा करते हैं। यथा- उत्पन्न होनेके प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहर्त जाकर चार अपर्याप्तियोंके शीघ्र निर्वर्तक सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीव थोडे हैं। चार अपर्याप्तियाँ एक साथ निर्लेपनभावको नहीं प्राप्त होती यह कहना ठीक नहीं हैं क्योंकि, क्रमसे निष्पन्न हुई आहार, शरीर, इन्द्रिय और आनापान पर्याप्तियोंका बादमें अक्रमसे निर्लेपन भाव देखा जाता है । निष्पत्ति और निर्लेपनमें जो भेद है उसे आगे कहेंगे। उससे एक समय अधिक स्थितिके निवर्तक जीव विशेष अधिक हैं। इस प्रकार आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाने तक विशेष अधिक विशेष अधिक हैं। पुनः वहाँ पर यवमध्य होता है। यवमध्यके उपरिम समयमें चार ४ ता० प्रती एवं कुदो' इति पाठ * ता० प्रती । जिल्ले विज्जदि ' इति पाउ: 1 ता. प्रतो '-पज्जतीणि (ण) कमेग' का० प्रती -जतीणि कमेग' इति पाठ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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