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________________ १७०) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं ( ५, ६, ११६ लभंति । पुणो उवरि समयाविरोहेण विसेसहीणकमेण गंतण उकस्सबादरणिगोदवग्गणाओ वि सरिसधणियाओ आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ त्ति लभंति । पुणो एत्थ विसेसाहियकमेण द्विवाओ चेव घेतण अवराओ मोत्तूण जवमज्झपमाणेण हेट्ठिमउवरिमदव्वे कदे तिण्णिगणहाणिमेत्तजवमझं होदि । एत्थ एगवग्गणं टुविय आवलियाए असंखेज्जविभागण गणिदे जवमज्झपमाणं होदि। पुणो एदम्मि तीहि गुणहाणीहि आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताहि गणिदे सव्वदव्वं होदि । पुणो महा. खंधदव्ववग्गणसलागाए ओट्टिदे आलियाए असंखज्जदिभागो गणगारो आगच्छदि । एसो गुणगारो सेचीयढाणेसु वग्गणावद्वाणक्कमजाणावणटुं परूविदो । एत्थ परमत्थदो पुण गुणगारो असंखेज्जदिलोगमेत्तो होदि । तं जहा- वट्टमाणकाले बादरणिगोदाणं सयलपुलवियाओ असखज्जलोगमेत्ताओ पादेक्कमसंखेज्जलोगमेत्तसरी. रेहि आरिदाओ अस्थि। कुदो एवं णव्वदे? अविरुद्धाइरियवयणादो सुत्तसमाणादो। पुणो आवलियाए असंखेज्जदिमागमेत्तपुलवियाहि जदि एगा बादरणिगोदवग्गणा लब्भदि तो असंखेज्जलोगमेत्तपुलवियासु किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए असंखेज्जलोगमेत्ताओ बादरणिगोदवग्गणाओ लन्भंति । तेण महाखंधदव्ववग्गणादो बादरणिगोदवग्गणाणं गुणगारो असंखेज्जलोगमेत्तो त्ति सिद्धं । आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होती हैं। पुनः ऊपर समयके अविरोधसे विशेष हीन क्रमसे जाती हुई सदृश धनवाली उत्कृष्ट बादरणिगोदवर्गणायें भी आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होती हैं । पुनः यहां पर विशेष अधिकके क्रमसे स्थित वर्गणाओंको ही ग्रहण कर और दूसरी वर्गणाओंको छोडकर अधस्तन व उपरिम द्रव्य के यवमध्यके प्रमाणसे करनेपर तीन गुणहानिप्रमाण यवमध्य होता है। यहां एक वर्गणाको स्थापित कर आवलिके असंख्यातवें भागसे गुणित करनेपर यवमध्यका प्रमाण होता है। पुनः इसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण तीन गुणहानियोंसे गुणित करने पर सब द्रव्य होता है। पुनः महास्कन्धद्रव्वयर्गणाशलाकासे भाजित करनेपर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार आता है। यह गुणकार सेचीयस्थानोंमें वर्गणाओंके अवस्थानक्रमका ज्ञान करानेके लिए कहा है। परन्तु यहां पर परमार्थसे गुणकार असंख्यात लोकप्रमाण होता है। यथा- वर्तमान कालमें बादरनिगोदकी सब पुलवियां असंख्यात लोकप्रमाण होकर प्रत्येक असंख्यात लोकप्रमाण शरीरोंसे आपूरित हैं । शंका-- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-- सूत्रके समान अविरुद्ध आचार्य वचनसे जाना जाता है। पुनः आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण पुलवियोंसे यदि एक बादरनिगोदवर्गणा प्राप्त होती है तो असंख्यात लोकप्रमाण पुलवियों में क्या प्राप्त होगा इस प्रकार फलगुणित इच्छाको प्रमाणसे भाजित करने पर असंख्यात लोकप्रमाण वादरनिगोदवर्गणायें प्राप्त होती हैं। इसलिए महास्कन्धद्रव्यवर्गणासे बादरनिगोदवर्गणाओंका गुणकार असंख्यात लोकप्रमाण है यह सिद्ध होता हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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