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________________ ५, ६, ६४५. ) बंधणाणुयोगद्दारे चूलिया ( ५०३ किंतु जवस्स मज्झमभंतरमंतो ति घेत्तव्वं । अथवा समिलामझे त्ति वुच्चदि, जुवखोली समिला णाम । दोण्णं समिलाणं मज्झं समिलामज्झं तेण समाणत्तादो समिलामज्झं । एवं सव्वेसि जवमज्झाणं जवमझं समिलामज्झे त्ति दोणामाणि होति । तदियतिभागसमयप्पहुडि जाव असंखेपद्धाए पढमसमओ ति ताव उवरिमतिभागस्स संखेज्जा भागा जेण आउअबन्धजवमज्झस्स विसओ तेण उवरिल्लए तिभाए आउअबंधजवमज्झमिदि ण घडदे ? न, 'एकदेशविकृतमनन्यवदत्' इति न्यायात्तदियतिभागस्स संखेज्जाणं भागाणं पि किंचणाणं तदियतिभागववएसेण सह विरोहाभावादो। एसा परूवणा सरीरखधंडरावासपुलवियाओ अस्सिदूण ण परूवेयव्वा, तत्थ णियमाणुवलंभादो। किंतु जहण्णमाउअमस्सिदण णिध्वत्तिसमिला जवमज्झाणि परूवेयवाणि । मरणजवमझं पुण णाणाउअविसयं चेव, समाणाउआणं कमेण मरणाणुववत्तीदो। तस्सवरिमसंखेपद्धा* ॥ ६४५ ।। जहण्णओ आउअबंधकालो जहण्णविस्समणकालपुरस्सरो असंखेपद्धा णाम । सो जवमझचरिमसमयप्पहुडि ताव होदि जाव जहण्णाउअबंधकालचरिमसमओ त्ति । एसा वि असंखेपद्धा तदियतिभागम्मि चेव होदि, अज्जवि खुद्दाभवग्गहणस्स संभवादो। भीतरी भाग ऐसा ग्रहण करना चाहिए । अथवा शमिलामध्य ऐसा कहते हैं युगकीलीका नाम शमिला है और दो शमिलाओंके मध्यका नाम शमिलामध्य है। उसके समान होनेसे उसे शमिलामध्य कहते हैं । इस प्रकार सब यवमध्यके यवमध्य और शमिलामध्य ये दो नाम हैं। शंका - तीसरे विभागके प्रथम समयसे लेकर आसंक्षेपाद्धाके प्रथम समय तक उपरिम त्रिभागका संख्यात बहुभाग यतः आयुबंधयवमध्यका विषय है अतः उपरिम त्रिभागमें आयुबंधयवमध्य घटित नहीं होता है ? __समाधान - नहीं, क्योंकि, एकदेश विकृत वस्तु अनन्यके समान अर्थात् उसीके समान होती है इस न्यायके अनुसार तृतीय त्रिभागके कुछ कम संख्यात बहुभागोंकी तृतीय त्रिभाग संज्ञा रखने में कोई विरोध नहीं आता हैं। ___ यह प्ररूपणा शरीरके स्कन्ध, अण्डर, आवास और पुलवियोंका आश्रय लेकर नहीं करनी चाहिए, क्योंकि, वहां कोई नियम नहीं उपलब्ध होता। किंतु जघन्य आयुका आश्रय लेकर निर्वत्ति शमिला यवमध्योंकी प्ररूपणा करनी चाहिए। परन्तु मरणयवमध्य नाना आयुओंको ही विषय करता है, क्योंकि, समान आयुवालोंका क्रमसे मरण नहीं बन सकता । उसके ऊपर आसंक्षेपाद्धा है । ६४५ ॥ जघन्य विश्रमणकाल पूर्वक जघन्य आयुबन्धकाल आसंक्षेपाद्धा कहा जाता है। वह यबमध्यके अन्तिम समयसे लेकर जघन्य आयुबन्धकालके अन्तिम समय तक होता है । यह आसंक्षेपाद्धा तृतीय त्रिभागमें ही होता है, क्योंकि अभी भी ऊपर क्षुल्लक भवग्रहण सम्भव है । * प्रतिषु ' तस्सुवरिमसंखेयदा' इति पाठ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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