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________________ ५०४ ) छवखंडागमे वग्गणा-खंड असंखेपद्धस्सुवरि खुद्दाभवग्गहणं ।। ६४६ ॥ आउ अबंधे संते जो उवरि विस्समणकालो सव्वजहण्णो तस्स खुद्दा * भवग्गहणं ति सण्णा । सो तत्तो उवरि होदि । कथमेदस्स खुद्दाभवग्गहणववएसो ? 'समुदायेषु प्रवृत्ताः शब्दा अवयवेष्वपि वर्तन्ते' इति न्यायेन तस्य तदविरोधात् । एदं पि खुद्द भवग्गहण तदितिभागे चेव, एदेण विणा तदियतिभागस्स संपुण्णत्ताणुववत्तीदो । अथवा असंखेपद्धस्सुवरि खुद्दाभवग्गहणं ति वुत्ते जहण्णाउअबंधकालचरिमसमयादो उवरि अंतमुत्तं गंतून हेट्ठिल्लभागेण सह घादखुद्दाभवग्गहणं होदि त्ति घेत्तव्वं । ( ५, ६, ६४६. खुद्दाभवग्गहणस्सुवरि जहणिया अपज्जत्तणिव्वत्ती ।। ६४७ ।। घादखुद्दाभवग्गहणस्सुवरि ततो संखेज्जगुणं अद्धाणं गंतूण सुहुमणिगोदजीवअपज्ज - ताणं बंधे जहणं जं णिसेयखुद्दाभवग्गहणं तस्स जहणिया अपज्जत्तणिव्वत्तित्ति सण्णा । एत्थं विपुवं व दोहि पयारेहि वक्खाणं कायव्वं । जहणियाए अपज्जत्तणिव्वत्तीए उवरिमुक्कस्सिया अपज्जत्तणिव्वत्ती अंतोमुहुत्तिया ॥। ६४८।। आसंक्षेपाद्धा के ऊपर क्षुल्लकभवग्रहण है ॥ ६४६ ॥ बन्ध होने पर जो सबसे जघन्य विश्रमणकाल है उसकी क्षुल्लकभवग्रहण संज्ञा है । वह आयुबन्धकाल के ऊपर होता है । शंका- इसकी क्षुल्लक भवग्रहण संज्ञा कैसे है ? समाधान-समुदायोंमें प्रवृत्त हुए शब्द उनके अवयवों में भी प्रवृत्ति करते हैं इस न्याय के अनुसार इसकी क्षुल्लकभवग्रहण संज्ञा होने में कोई विरोध नहीं आता है । यह क्षुल्लकभवग्रहण भी तृतीय त्रिभाग में ही होता है क्योंकि, इसके विना तृतीय त्रिभाग सम्पूर्ण नहीं होता । अथवा आसंक्षेपाद्धाके ऊपर क्षुल्लक भवग्रहण है ऐसा कहने पर जघन्य आयुबन्धकालके अन्तिम समयसे ऊपर अन्तर्मुहूर्त जा कर नीचे के भाग के साथ घात क्षुल्लक भवग्रहण होता है ऐसा ग्रहण करना चाहिए । क्षुल्लकभवग्रहण के ऊपर जघन्य अपर्याप्त निवृति होती है ।। ६४७ ॥ घात क्षुल्लक भवग्रहण के ऊपर उससे संख्यातगुणा अध्वान जाकर सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवोंके बन्धसे जो जघन्य निषेक क्षुल्लक भवग्रहण होता है उसकी जघन्य अपर्याप्त निर्वृत्ति संज्ञा है। यहां पर भी पहले के समान दो प्रकारसे व्याख्यान करना चाहिए । जघन्य अपर्याप्त निर्वृत्तिके ऊपर उत्कृष्ट अपर्याप्त निवृत्ति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होती है । ६४८ ॥ प्रतिपु' असखेयस्सुवरि' इति पाठः । Jain Education International अ० प्रती ' तस्सखुद्दा ' इति पाठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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