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________________ ( २२३ ५, ६, ११७.) बंधणाणुयोगद्दारे बाहिरवग्गणापरूवणा होदि। एदम्नि दव्वद्वदाए भागे हिदे संखेज्जरूवाणि लन्भंति । तेण गुणगारो संखेज्जे ति सिद्धं। असंखज्जपदेसियवग्गणासु णाणासेडिसव्वदव्वा असंखेज्जगुणा । को गुण ? असंखेज्जा लोगा। तेसु चेव णाणासेडिसव्वपदेसा असंखेज्जगुणा । को गुण? असंखेज्जा लोगा। एवमप्पाबहुगपरूवणा गदा । अट्ठहि अणुयोगद्दारेहि तेवीसवग्गणासु पलविदासु अब्भंतरवग्गणा समत्ता होदि । तत्थ इमाए बाहिरियाए वग्गणाए अण्णा परूवणार कायव्वा भवदि ॥ ११७॥ ओरालियादिपंचण्हं सरीराणं कथं बाहिरिया वग्गणा त्ति सण्णा। ण ताव इंदिय-गोइंदिएहि अगेज्झाणं पोग्गलाणं बाहिरसण्णा, परमाणुआदिवग्गणाणं पि तदविसेसेण बाहिरवग्गणत्तप्पसंगादो। ण ताव जीवपदेसेहि पुधभूदाणि त्ति पंचण्हं सरीराणं बाहिरववएसो, दुद्धोदयाणं व अण्णोण्णाणुगयाणं जीवसरीराणं अन्भंतर - बाहिरभावाणुववत्तीदो। अणंताणताणं विस्सासुवचयपरमाणूणं मज्झे पंचण्हं सरीराणं परमाणू चेट्टिदा ति ण तेसि बाहिरसण्गा, विस्सासुवचयक्खंधाणमंतोटिदाणं बाहिरववएसविरोहादो। तम्हा* बाहिरवग्गणववएसो ण वडद? एत्थ परिहारो उच्चद। तं संख्यातप्रदेशी वर्गणाओंका द्रव्य होता है। इसमें द्रव्यार्थताका भाग देने पर संख्यात अंक लब्ध आते हैं। इसलिए गणकार संख्यात है यह सिद्ध होता है। असंख्यातप्रदेशी वर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब द्रव्य असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है। उन्हीं में नानाश्रेणि सब प्रदेश असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है । इस प्रकार अल्पबहुत्व प्ररूपणा समाप्त हुई। तथा आठ अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर तेईस वर्गणाओंकी प्ररूपणा करने पर आभ्यन्तर वर्गणा समाप्त होती है। अब वहां इस बाह्य वर्गणाको अन्य प्ररूपणा कर्तव्य है ॥ ११७ । शंका- औदारिक आदि पाँच शरीरोंकी बाह्य वर्गणा संज्ञा कैसे है ? इन्द्रिय और नोइन्द्रियसे अग्राह्य पुद्गलों को बाह्य संज्ञा तो हो नहीं सकती, क्योंकि, परमाणु आदि वर्गणाओं में भी उनसे कोई विशेषता नहीं पाई जाती है, इसलिए उन्हें भी बाह्य वर्गणापनेका प्रसंग प्राप्त होता है। वे जीवप्रदेशों से पृथग्भूत हैं, इसलिए पाँच शरीरोंकी बाह्य संज्ञा है यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, दूध और जलके समान परस्परमें एक दूसरे में प्रविष्ट हुए जीव और शरीरोंका आभ्यन्तरभाव और बाह्यभाव नहीं बन सकता है। अनन्तानन्त विस्रसोपचयरूप परमाणुओंके मध्यमे पाँचो शरीरों के परमाणु अवस्थित हैं इसलिए उनकी बाह्य संज्ञा है सो ऐमा कथन करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, भीतर स्थित विस्रसोपचय स्कन्धोंकी बाह्य संज्ञा होने में विरोध आता है। इसलिए बाह्य वर्गणा यह संज्ञा नहीं बनती है ? . समाधान- यहां अब इस शंकाका परिहार करते हैं। यथा--पूर्वोक्त तेईस वर्गणाओंसे आप्रतौ 'अण्णा परूवणा' इति पाठः । ॐ अ०प्रती 'जीवसरीराणमच्चंतर-' इति पाठः । *प्रति 'तम्हा' इति स्थाने 'तं जहा' इति पाठः।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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