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________________ बंधगाणुयोगद्दारं जे ते बंधगा णाम तेसिमिमो णिहेसो-गदि इंदिए काए जोगे वेद कसाए णाणे संजमे बंसणे लेस्सा भविय सम्मत्त सण्णि आहारे चेदि ॥ ६५ ॥ एवं सुत्तं चोद्दसमग्गणढाणाणि परूवेदि, अण्णहा बंधगपरूवणाणुववत्तीदो । एदेसि मग्गणट्ठाणाणं जहा खुद्दाबंधे परूवणा कदा तहा कायव्वा । ____ गदियाणुवादेण णिरयगदीए गैरइया• बंधा तिरिक्खा बंधा देवा बंधा मणुसा बंधा वि अत्थि अबंधा वि अस्थि सिद्धा अबंधा* । एवं खुद्दाबंधएक्कारसअणुयोगद्दारं णेयव्वं ।। ६६ ॥ एत्थ उद्देसे खुद्दाबंधस्स एक्कारसअणुयोगद्दाराणं परूवणा कायव्वा, अम्हेहि पुण गंथबहुत्तभएण ण कदा। एवं महादंडया णेयव्वा ।। ६७ ॥ एक्कारसअणुयोगद्दाराणं परवणं कादूण पुणो महादंडयाणं पिपरूवणा कायव्वा। एवं बंधगे त्ति समत्तमणुयोगद्दारं । जो बन्धक हैं उनका यह निर्देश है- गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञो और आहार ।। ६५ ।। यह सूत्र चौदह मार्गणास्थानोंका प्ररूपण करता है, अन्यथा बन्धकका कथन नहीं बन सकता । इन मार्गणास्थानोंका जिस प्रकार क्षुल्लकबन्धमें कथन किया है उस प्रकार करना चाहिये। गति मार्गणाके अनुवादसे नरकगतिमें नारक जीव बन्धक हैं, तिथंच बन्धक हैं देव बन्धक हैं, मनुष्य बन्धक भी हैं और अबन्धक भी हैं, सिद्ध अबन्धक हैं । इस प्रकार यहाँ क्षुल्लकबन्धके ग्यारह अनुयोगद्वार जानने चाहिए ॥ ६६ ॥ इस स्थानपर क्षुल्लकबन्धके ग्यारह अनुयोगद्वारोंका कथन करना चाहिए । हमने ग्रन्थके बढ़ जानेके भयसे उनका कथन यहाँ नहीं किया है। इसी प्रकार महादण्डक जानने चाहिए ॥ ६७ ।। ग्यारह अनुयोगद्वारोंका कथन करके अनन्तर महादण्डकोंका भी कथन करना चाहिए । विशेषार्थ- यहाँ बन्धकका कथन करना है। पहले यह कथन क्षुल्लकबन्धमें कर आये हैं, इसलिये यहाँ उसके अनुसार ही इस कथनके करनेकी सूचना की है। क्षुल्लकबन्धमें सर्व प्रथम 'बन्धक ' के कथनकी प्रतिज्ञा की है । अनन्तर चौदह मार्गणाओंका नामनिर्देश करके उनमें से प्रत्येक मार्गणामें कौन बन्धक है और कौन अबन्धक है यह बतलाया है । अनन्तर एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व आदि ग्यारह अनुयोगों के द्वारा बन्धकका कथन करके अन्तमें महादण्डक दिये हैं । यहाँ भी इसी प्रकार कथन करनेसे बन्धक अनुयोगद्वार समाप्त होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार बन्धक यह अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। * आ० प्रती दिसणेसु' इति पाठा) ता० प्रती 'णेरया' इति पाठः। * अ० आ० प्रत्योः 'अबंधा ।। २] इति पाठः । ४ आ० प्रती 'अहेहि इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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