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________________ बंधणिज्जाणुयोगद्दारं जं तं बंधणिज्जं णाम तस्स इममणुगमणं कस्सामो- वेवणअप्पा पोग्गला, पोग्गला खंधसमुद्दिट्ठा, खंधा वग्गणसमुद्दिट्ठा ।। ६८॥ वेद्यन्त इति देवनाः । जीवादो पुधभदा कम्म-णोकम्मबंधपाओग्गखंधा बंधणिज्जा णाम । तेसि कधं वेदणाभावो जुज्जदे ? ण, दव्व-खेत्त-काल-भावेहि वेदणापाओग्गेसु बवट्ठियणयमस्सिदूण वेदणासहपवृत्तीए अब्भुवगमावो। वेदनावमात्मा स्वरूपं येषा ते वेदनात्मानः पुद्गलाः इह गृहीतव्याः । कुदो ? अण्णास बंधणिज्जत्ताभावादो। ते च बंधणिज्जा पोग्गला खंधसमुद्दिट्ठा, खंधसरूवाअणंताणंत परमाणुपोग्गलसमुदयसमागमेण बंधपाओग्गपोग्गलसमप्पत्तीदो। एदेण एयपदेसिया-दुपदेसियादीणं पोग्गलाण, बंधणिज्जत्तपडिसेहो कदो। ते च खंधा वग्गणसमुद्दिवा; वग्गणाहितो पुधभूवक्खंधाभावादो। एदेण बंधणिज्जपोग्गलाणं णिवियप्पत्तपडिसेहो कदो। तेण बंधणिज्जपरूवणे कीरमाणे वग्गणपरूवणा णिच्छएण कायव्वा; अण्णहा तेवीसवग्गणासु इमा चेव वग्गणा बंधपाओग्गा, अण्णाओ* बंधपाओग्गाओ ण होति त्ति अवगमाणुववत्तीदो । जो बन्धनीय है उसका इस प्रकार अनुगमन करते हैं- वेदनस्वरूप पुद्गल है। पुद्गल स्कन्धस्वरूप हैं, और स्कन्ध वर्गणास्वरूप हैं ॥ १॥ जो वेदे जाते हैं उन्हें वेदन कहते हैं। जीवसे पृथग्भूत बन्धयोग्य कर्म और नोकर्म स्कन्ध बन्धनीय कहा शंका-वे वेदनरूप कैसे हो सकते हैं ? समाधान- नहीं, क्योंकि, जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा वेदनायोग्य हैं, उनमें द्रव्याथि कनयकी अपेक्षा वेदना शब्दकी प्रवृत्ति स्वीकार की गई है। वेदनपना जिनका आत्मा अर्थात् स्वरूप है वे वेदनात्मा कहलाते हैं । यहाँ इस पदसे युद्गलोंका ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि, अन्य कोई पदार्थ बन्धनीय नहीं हो सकते । वे बन्धनीय पुद्गल स्कन्धसमुद्दिष्ट अर्थात् स्कन्धस्वरूप कहे गये हैं, क्योंकि, स्कन्धरूप अनन्तानन्त परमाणुपुद्गलोंके समुदायरूप समागमसे बन्धयोग्य पुद्गल होते हैं । इस पदसे एक प्रदेशी और दो प्रदेशी आदि वर्गणाओंसे पृथग्भूत स्कन्ध नही पाये जाते । इस पदसे बन्धनीय पुद्गल निर्विकल्प होते हैं इस बातका निषेध किया है । इसलिए बन्धनीयका कथन करते समय वर्गणाका कथन नियमसे करना चाहिए । अन्यथा तेईस प्रकारकी वर्णणाओंमें ये वर्गणा ही बन्धयोग्य हैं, अन्य बन्धयोग्य नहीं हैं, यह ज्ञान नहीं हो सकता। ४ अ० प्रती समट्रिदा' इति पाठः। *ता०. अ. आ० प्रतिष 'वेदनात्मनः' इति पाठः । .ता० प्रती (अ) जंता-' इति पाठ: 10 अ० प्रती 'बंधपोग्गलपाओग्ग-' इति पाठः । ता० आ. प्रत्यो 'अण्णा जो' इति पाठः 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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