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________________ २९२ ) छक्खंडागमे वग्गणा खंड ( ५, ६, १६७ पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो। कायाणवादेण पुढवि०-आउ० बिसरीर-तिसरीराणं सुहमेइंदियभंगो। बादरपुढवि०-बादरआउ०-बादरवणप्फविपत्तेयसरीर० बिसरीराणमंतरं केवचिरं का. होदि ? जाणाजी० प० णत्थि अन्तरं गिरन्तरं । एगजीवं ५० जह० खुद्दाभवग्गहणं बिसमऊणं, उक्कस्सेण कम्मटिदी। तिसरीराणमंतरं केवचिरं का. होदि ? णाणाजी० ५० पत्थि अन्तरं । एगजीवं ५० जह० एगसमओ, उक्क० बेसमया। बावरपुढवि०बावरआउ० बादरवणप्फदि०-पत्तेयसरीरपज्जत्त० बिसरीराणमंतरं केवचिरं का होवि? जाणाजी० ५० जह° एगसमओ, उक्क० अंतोमहत्तं । एगजीवं ५० जह० अन्तोमुहुत्तं बिसमऊगं, उक्क० संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । तिसरीराणं बेइंदियपज्जत्तमंगो। बादरपुढवि०-बावरआउ०-बावरवणप्फदि० पत्तेयसरीरअपज्जत बिसरीर-तिसरीराणं है। पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्तकोंका भंग पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है । विशेषार्थ-- एकेन्द्रियों में चार शरीरोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण क्यों है इस बातके समर्थन में वीरसेन स्वामीका कहना है कि जिनके वैक्रियिकशरीर आदि चार प्रकृतियोंकी सत्ता है वे ही विक्रिया करते हैं, अन्य नहीं । सामान्य नियम यह है कि जिन एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियोंके देवगतिद्विक, नरकगतिद्विक और वैकियिकचतुष्ककी सत्ता होती है वे इनकी नियमसे उद्वेलना करते हैं और उद्वेलनामें जघन्य और काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण लगता है। इसका मतलब यह हुआ कि एकेन्द्रियोंम वैक्रियिकशरीर आदि की सत्ता अधिकसे अधिक पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक ही हो सकती है। और जब यह नियम मान लिया गया कि वैक्रियिकशरीरके सत्त्वके रहते हुए ही मनुष्य और तिर्यञ्च विक्रिया करते हैं तब उक्त कालके प्रारम्भमें और अन्त में विक्रिया कराके ही यह अन्तर लाया जा सकता है। यही कारण कि यहाँ एकेन्द्रियों में उनकी काय - स्थिति अधिक होने पर भी एक जीवकी अपेक्षा चार शरीरवालोंका उत्कृष्ट अन्तर पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। कायमार्गणाके अनुवादसे पृथिवीकायिक और जलकायिक जीवों में दो शरीरवाले और तीन शरीरवाले जीवों का भंग सूक्ष्म एकेन्द्रियोंके समान है। बादर पृथिवीकायिक, बादर जल कायिक और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर जोवोंमें दो शरीरवालोंका अंतरकाल कितनाहै? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, निरन्तर है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अंतर दो समय कम क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट अंतर कर्मस्थिति प्रमाण है। तीन शरीरवालोंका अंतरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अतर दो समय है । बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीवोंमें दो शरीरवालोंका अंतरकाल कितना है? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर दो समय कम अन्तर्मुहुर्त है और उत्कृष्ट अन्तर संख्यात हजार वर्ष है। तीन शरीरवालोंका भंग द्वीन्द्रियपर्याप्तकोंके समान है। बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त जीवोंमें दो शरीरवाले और For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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