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________________ २३०) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ६, १२५ एगसरीरसंबंधेण तेसि सव्वेसि पि समगत्तं पडि विरोहाभावादो। अथवा समए वक्कताणं ति सुत्तं वत्तव्वं । एक्कम्हि समए एक्कसरीरे उप्पण्णसव्वजीवा समए वक्कंता णाम । एक्कम्हि सरीरे पच्छा उप्पज्जमाणा जीवा अत्थि, कथं तेसिं पढमसमए चेव उप्पत्ती होदि ? ण, पढमसमए उप्पण्णाणं जीवाणमणुग्गहणफलस्स पच्छा उप्पण्णजीवेसु वि उवलंभादो । तम्हा एगणिगोदसरीरे उप्पज्जमाणसव्वजीवाणं पढमसमए चेव उप्पत्ती एदेण णाएण जुज्जदे । एवं दोहि फ्यारेहि समगं वक्कंताणं जीवाणं तेसि सरीरणिप्पत्ती समगं अक्कमेण चेव होदि । समगं च अणुरगहणं, समुणुग्गहणादो। जेण कारणेण सव्वेसि जीवाणं परमाणुपोग्गलग्गहणं समगं अक्कमेण होदि तेण आहारसरीरिदियणिप्पत्ती उस्सासणिस्सासणिप्पत्ती व समगं अक्कमेण होदि, अण्णहा अणुग्गहणस्स साहारणत्तविरोहादो। एगसरीरे उप्पण्णाणंतजीवाणं चत्तारिपज्जत्तीयो अप्पप्पणो द्वाणे समगं समप्पंति । अणुग्गहणस्स साहारणभावादो त्ति भणिदं होदि । जत्थेउ मरइ जीवो तत्थ दु मरणं भवे अणताणं । वक्कमइ जत्थ एक्को वक्कमणं तत्थणंताणं ॥१२५ ॥ समाधान-- नहीं, क्योंकि, एक शरीरके सम्बन्धसे उन जीवोंके भी एकसाथपना होने में कोई विरोध नहीं आता है। अथवा 'समए वक्कंताणं' ऐसा सूत्र कहना चाहिये । एक समय में एक शरीरमें उत्पन्न हुए सब जीव 'समए वक्कता' कहे जाते हैं । शंका- एक शरीरमें बादमें उत्पन्न हुए जीव हैं ऐसी अवस्थामें उनकी प्रथम समयमेंही उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, प्रथम समयमें उत्पन्न हुए जीवोंके अनुग्रहणका फल बादमें उत्पन्न हुए जीवोंमें भी उपलब्ध होता है, इसलिए एक निगोदशरीरमें उत्पन्न होनेवाले सब जीवोंकी प्रथम समयमें ही उत्पत्ति इस न्यायके अनुसार बन जाती है । इस प्रकार दोनों प्रकारोंसे एकसाथ उत्पन्न हुए जीवोंके उनके शरीरकी निष्पत्ति समगं अर्थात् अक्रमसे ही होती है । तथा एकसाथ अनुग्रहण होता है, क्योंकि, उनका अनुग्रहण समान स कारणसे सब जीवोंके परमाणु पुद्गलोंका ग्रहण समगं अर्थात अक्रमसे होता है, इसलिये आहार, शरीर और इन्द्रियोंकी निष्पत्ति और उच्छवास-निःश्वासकी निष्प अर्थात् अक्रमसे होती है । अन्यथा अनुग्रहणके साधारण होने में विरोध आता है। एक शरीरमें उत्पन्न हुए अनन्त जीवोंकी चार पर्याप्तियां अपने अपने स्थानमें एकसाथ समाप्त होती हैं, क्योंकि, अनुग्रहण साधारणरूप है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । जिस शरीरमें एक जीव मरता है वहाँ अनन्त जीवोंका मरण होता है । और जिस शरीरमें एक जीव उत्पन्न होता है वहाँ अनन्त जीवोंकी उत्पत्ति होती है ।।२२५॥ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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