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________________ ४५२ ) छपखंडागमे वग्गणा - खंड एवं ति चदु-पंच-छ- सत्त- अट्ठ- णव- बस अनंत अनंतानंतगुणजुत्तवग्गणाए दव्वा ते विस्सासुवचएहि उवचिदा ॥ ५४१ ॥ ( ५, ६, ५४१ संखेज्ज- असंखेज्जविसेसहीणा अनंतेहि तिगुणजुत्तवग्गगाए दव्वा अणतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा ते विसेसहीणा ति एत्थ संबंधी पुण्वं व कायव्वो । एवं पादेवकं भणिऊण णेयव्वं जाव सेचीयादो सव्वजीवेहि अनंतगुणमेत्तट्ठाणेसु अंगुलस्स असंखे ० भागमेत्तभावद्वाणाणि सेसाणिति । fig एत्थ सव्वत्थ अनंतभागहाणी चेव । तदो अंगुलस्स असंखेज्जदिभागं गंतूण तेसि छव्विहा हाणी -- विशेषार्थ -- यहांपर औदारिकशरीरकी एक गुणयुक्त वर्गणा के द्रव्यसे दो गुणयुक्त वर्गणाका द्रव्य विशेषहीन बतलाया हैं । इस पर यह शंका की गई है कि जब कि एक गुणयुक्त वर्गाका अर्थ एक अविभाग प्रतिच्छद युक्त वर्गणा न होकर अनन्त अविभागप्रतिच्छेदोंसे युक्त जघन्य वर्गणा है ऐसी अवस्था में इससे एक अधिक अविभागप्रतिच्छेदवाली वर्गणाके द्रव्यको दो गुणयुक्त कैसे कह सकते हैं, क्योंकि, यहां पर दूने अविभागप्रतिच्छेदों की वृद्धि नहीं हुई है। वीरसेन स्वामीने इस शंकाका जो समाधान किया है उसका आशय यह है कि यहां पर जघन्य गुणको एक मान लिया है और उसपर एक अविभागप्रतिच्छेदकी वृद्धि होने पर उसे दो गुणयुक्त कहा है, क्योंकि, जघन्य गुणयुक्त द्रव्यसे भिन्न द्रव्यमें उतनी ही वृद्धि देखी जाती है । आगे तीन गुणयुक्त द्रव्यमें भी इसी प्रकार एक अविभागप्रतिच्छेदकी वृद्धि जाननी चाहिए । यह पूछने पर कि यह अर्थ कैसे फलित किया गया है वीरसेनस्वामी ने यह उत्तर दिया है कि सूत्र में ' दुगुणजुत्त' पदको देखकर यह अर्थ फलित किया है। यदि सूत्रकारको जघन्य गुणसे दूना अर्थ इष्ट होता तो वे ' दुगुणजुत्त' पदके स्थान में ' दुगुणगुणजुत्त' ऐसे पदका प्रयोग करते । पर उन्होंने जब ऐसे पदका प्रयोग न करके ' दुगुणजुत्त पदका ही प्रयोग किया है । इससे ज्ञात होता हैं कि उन्हें जघन्य गुणके ऊपर एक अविभागप्रतिच्छेदकी वृद्धि इष्ट है और उसे ही वे दुगुणजुत्त अर्थात् दो गुणयुक्त शब्द द्वारा व्यक्त कर रहे हैं । और यह मानना ठीक नहीं है कि यहां पर जघन्य गुणसे एक परमाणु में सम्भव जघन्य गुण ले लिया जाय, क्योंकि, मिथ्यात्व आदि कारणोंसे ये औदारिक शरीर की वर्गणायें जीवके साथ बन्धको प्राप्त हुई हैं, इसलिए जीवसे अलग होनेपर भी इनमें एक परमाणुका गुण सम्भव नहीं हो सकता । , इसी प्रकार तीन, चार, पांच, छह, सात, आठ, नौ, दस, संख्यात, असंख्यात, अनन्त और अनन्तानन्त गुणयुक्त वर्गणाके जो द्रव्य हैं वे विशेष होन हैं और वे अनन्त वित्रसोपचयोंसे उपचित हैं ।। ५४१ ॥ तीन गुणयुक्त वर्गणा द्रव्य अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित हैं और वे विशेष हीन हैं इस प्रकार यहाँ पर पहले के समान सम्बन्ध करना चाहिए । इसप्रकर सेचीयकी अपेक्षा सब जीवोंसे अनन्तगुणे स्थानों में अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान शेष रहने तक प्रत्येक स्थानका कथन करके ले जाना चाहिए। किन्तु यहाँ सर्वत्र अनन्तभागहानि ही होती है । उससे अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर उनकी छह प्रकारकी For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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