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________________ ५, ६, २२४ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरिसरी परूवणाए अप्पाबहुअपरूवणा ( ३१५ भेदो । तं जहा - चक्खुदंसणीसु सव्वत्थोवा चदुसरीरा । विसरीरा असंखेज्जगुणा । को गुण ० ? सेडीए असंखे० भागो । तिसरीरा असंखे० गुणा । को गुणगारो । आवलि० असंखे० भागो । ओहिदंसणीसु सव्वत्थोवा चदुसरीरा । विसरीरा* असंखेज्जगुणा । को गुण ०? आवल० असंखे ० भागो | तिसरीरा असंखे० गुणा । को गुण ०? आवलि० असंखे० भागो | तेउलेस्सिएसु सव्वत्थोवा चदुसरीरा । विसरीरा असंखेज्जगुणा । को गुण ० ? आवलि० असंखे० भागो । अहवा गुणगारो ण णव्वदे, विसिट्ठवएसाभावादो । तिसरीरा असंखे० गुणा । को गुण० ? सेडीए असंखे ० भागो । एवं पम्पलेस्सियाणं । केवलदंसणीणं णत्थि अप्पा बहुगं ।। २२२ ॥ कुदो ? एगपदत्तादो । सुक्कलेस्सिया सव्वत्थोवा विसरीरा ।। २२३ ॥ कुदो ? संखेज्जत्तादो | चदुसरीरा असंखेज्जगुणा ॥ २२४ ॥ अपेक्षा तो भेद है ही । यथा- चक्षुदर्शनवालोंमें चार शरीरवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे दो शरीरवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । उनसे तीन शरीरवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । अवधिदर्शनवालों में चार शरीरवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे दो शरीरवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। उनसे तीन शरीरवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? आलि असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । पीतलेश्यावालोंमें चार शरीरवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे दो शरीरवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । अथवा गुणकारका ज्ञान नहीं है, क्योंकि, इस विषय में विशिष्ट उपदेशका अभाव है । उनसे तीन शरीरवाले जोव असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है । जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । इसी प्रकार पद्मलेश्यावालोंके जानना चाहिए । *** केवलदर्शनवालोंमें अल्पबहुत्व नही है ।। २२२ ॥ क्योंकि, इनमें एक ही पद है । शुक्ललेश्यावालोंमें दो शरीरवाले जीव सबसे स्तोक हैं ।। २२३ ॥ क्योंकि इनका प्रमाण संख्यात है । उनसे चार शरीरवाले जीव असंख्यातगुणे हैं ।। २२४ ॥ का० प्रतो 'ओहिदंसणीसु ता० प्रतो चदुसरीरा । ति ( वि ) सरीरा इति पाठः । ता० प्रती ' असंखे० भागो 1 वि ( ति ) सरीरा' इति पाठ: 1 For Private & Personal Use Only Jain Education International • इत आरम्भ तेउलेस्सिएसु' इति यावत् पाठो नोपलभ्यते । www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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