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________________ पंधणामुयोगदारे विस्सासुवचयपरूवणा जीवपमाणाणुगमेण पुढविकाइया जीवा असंखेज्जा ।। ५५६ ॥ असंखेज्जलोगमेत्ता भणि होदि । आउक्काइया जीवा असंखेज्जा ॥ ५५७ ।। तेउक्काइया जीवा असंखेज्जा ॥ ५५८ ॥ वाउक्काइया जीवा असंखज्जा ॥ ५५९ ।। एदे चत्तारि वि जीवणिकाया असंखेज्जलोगमेत्ता। वणप्फदिकाइया जीवा अणंता ॥ ५६० ॥ तसकाइया जीवा असंखेज्जा ॥ ५६१ ।। जगपदरस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता । एवं जीवपमाणाणगमो समतो। पदेसपमाणाणगमेण पुढविकाइयजीवपदेसा असंखेज्जा । ५६२ । पुढविकाइयजीवे पुवपरूविदे एगेणघणलोगेण गुणिदे जीवपदेसपमाणुप्पत्तीदो। जीवपमाणादो चेव विस्तासुवचयाणं पमाणे अवगदे संते जीवपदेसाण पमाणं किमळं होते हैं। जीवप्रमाणानुगमको अपेक्षा पृथिवीकायिक जीव असंख्यात हैं ।। ५५६ ॥ असंख्यात लोकप्रमाण हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। जलकायिक जीव असंख्यात हैं ।। ५५७॥ अग्निकायिक जीव असंख्यात हैं ॥ ५५८ ॥ वायुकायिक जीव असंख्यात हैं । ५५९ । ये चारों ही जीवनिकाय असंख्यात लोकप्रमाण हैं। वनस्पतिकायिक जीव अनन्त हैं। ५६० । त्रसकायिक जीव असंख्यात हैं। ५६१ । त्रसकायिक जीव जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। __इस प्रकार जीवप्रमाणानुगम समाप्त हुआ। प्रदेशप्रमाणानुगमकी अपेक्षा पृथिवीकायिक जीवोंसे प्रदेश असंख्यात हैं। ५६२ । पहले कहे गये पृथिवीकायिक जीवोंको एक घनलोकसे गुणित करनेपर पृथिवीकायिक जीवोंके प्रदेशोंका प्रमाण उत्पन्न होता है । शंका-- जीवोंके प्रमाणसे ही विस्रसोपचयोंके प्रमाणका ज्ञान हो जानेपर यहाँ पर जीवोंके प्रदेशोंका प्रमाण किस लिए कहा है ? अ० का प्रत्योः · पुढ विकाइयपदेसा ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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