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________________ ४६४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ६, ५६३ एत्थ वुच्चदे ? ण, एक्केक्कम्हि जीवपदेसे अणंतओरालिय-तेजा-कम्मइयपरमाणू अस्थि, एक्केक्कम्हि परमाणुम्हि अणंताणंता विस्सासुवचया च अत्थि, एक्केक्कम्हि जीवे एगेगघणलोगमेत्ता चेव जीवपदेसा अस्थि त्ति जाणावणळं जीवपदेसपमाणपरूवणा कोरदे। एक्केक्कम्हि जीवपदेसे एगपरमाणुणा विणा कथमणता परमाणू सम्मांति*? ण, कम्मपरमाणणमाणंतियं फिट्टियण तेसिमसंखेज्जपमाणत्तप्पसंगादो । ण च एवं, सव्वसुत्तेहि सह विरोहप्पसंगादो तम्हा । जत्तीए विणा सुत्तबलेणेव एक्केकम्हि जीवपदेसे अणंताणंतपरमाणणमस्थित्तपरूवणढें पदेसपमाणाणुगमो आगद।। आउक्काइयजीवपदेसा* असंखेज्जा ।। ५६३ ।। तेउक्काइयजीवपदेसा असंखेज्जा ॥ ५६४ ॥ वाउकाइयजीवपदेसा असंखेज्जा ॥ ५६५ ।। वणप्फदिकाइयजीवपदेसा अणंता ॥ ५६६ ।। तसकाइयजीवपदेसा असंखेज्जा।। ५६७ ।। सुगमाणि एदाणि सुत्ताणि । एवं पदेसपमाणाणगमो समत्तो । समाधान- नहीं, क्योंकि, एक एक जीवप्रदेश में अनन्त औदारिक, तैजस और कार्मण परमाण हैं तथा एक एक परमाणपर अनन्तानन्त विस्रसोपचय हैं इस प्रकार इस बात का ज्ञान करानेके लिए तथा एक एक जीवके एक एक घनलोकप्रमाण ही जीवप्रदेश है इस बात का ज्ञान करानेके लिए यहां पर जीवके प्रदेशोंके प्रमाणका कथन किया है। शंका- एक एक जीवप्रदेश पर एक परमाणुके बिना अनन्त परमाणु कैसे समाते है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, ऐसा माननेपर कर्मपरमाणुओंकी अनन्तता नष्ट होकर उनके असंख्यातप्रमाण प्राप्त होने का प्रसंग आता है । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, ऐसा माननेपर सब सूत्रोंके साथ विरोध होने का प्रसंग प्राप्त होता है । इसलिए युक्ति के बिना सूत्रके बलसे ही एक एक जीवप्रदेश पर अनन्तानन्त परमाणुओंके अस्तित्वका कथन करने के लिए प्रदेशप्रमाणानुगम आया है। अप्कायिक जीवों के प्रदेश असंख्यात हैं ॥ ५६३ ।। अग्निकायिक जीवोंके प्रदेश असंख्यात हैं ।। ५६४ ॥ वायकायिक जीवोंके प्रदेश असंख्यात हैं ।। ५६५ ।। वनस्पतिकायिक जीवोंके प्रदेश अनन्त हैं ।। ५६६ ।। त्रसकायिक जीवोंके प्रदेश असंख्यात हैं ।। ५६७ ।। ये सूत्र सुगम हैं । इस प्रकार प्रदेशप्रमाणानुगम समाप्त हुआ। *ता प्रती · सम्मति ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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