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________________ ५, ६, १६७ ) बंषणाणुयोगद्दारे सरीरिसरी रपरूवणाए अंतरपरूवणा (२८५ आदेसेण गवियाणवादेण जिरयगदीए णेरइएस निसरीराणमंतरं केवचिरं का. होदि? णाणाजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० चदुवीसमहुत्ता। एगजीवं प० णस्थि अंतरं। तिसरीराणमंतरं केवचिर का० होवि ? णाणेगजीवं प० पत्थि अंतरं। पढमादि जाव सत्तमपुढवि त्ति ताव बिसरीराणमंतर केवचिरं का० होदि ? जाणाजीवे प० जह० सव्वासि पुढवीणमेगसमओ, उक्क० अडदालीसं महत्ता पक्खो मासोबेमासा चत्तारिमासा छम्मासा बारसमासा। एगजीवं १० पत्थि अंतरं पिरंतरं। तिसरीराण मभयदो वि जीवोंकी अपेक्षा दो शरीरवालोंका जघन्य अन्तर तीन समय कम क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण प्राप्त होता है, क्योंकि, अपर्याप्त जीवकी जघन्य भवस्थितिमें से अनाहारकके तीन समय कम कर देने पर शेष काल आहारक अवस्थाका बच रहता है। इसके बाद वह जीव पुनः अनाहारक हो सकता है। तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि, यदि कोई जीव निरन्तर आहारक रहता है तो इतने काल तक ही वह आहारक रहता है। इसके पूर्व और बादमें वह नियमसे अनाहारक होता है । तीन शरीरवाले जीव भी निरंतर पाये जाते हैं, इसलिए ओघसे नाना जीवोंकी अपेक्षा इनके अन्तरकालका निषेध किया है । तथा दो शरीरवालोंका जघन्य काल एक समय और चार शरीरवालोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्त पहले बतला आये हैं। वही यहाँ एक जीवकी अपेक्षा तीन शरीरवालोंका जघन्य और उत्कृष्ट अंतरकाल जानना चाहिए। यदि तीन शरीरवाला एक समयके लिए दो शरीरवाला होकर पुनः तीन शरीरवाला हो जाता है तो जघन्य अंतर एक समय प्राप्त होता है और तीन शरीरवाला अंतर्मुहर्तके लिए चार शरीरवाला होकर पुन: तीन शरीरवाला हो जाता है तो उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है । यह उक्त कथनका तात्पर्य है। चार शरीरवाले नाना जीव भी निरंतर पाये जाते है, इसलिए नाना जीवोंकी अपेक्षा चार शरीरवालोंके अन्तरकालका निषेध किया है। तथा विक्रिया करके उसका उपसहार करने के बाद या आहारक शरीरको उत्पन्न करने के बाद पुनः विक्रिया या आहारक शरीरकी उत्पत्ति अन्तर्मुहुर्त कालका अन्तर पडे बिना नहीं हो सकती, इसलिए एक जीवकी अपेक्षा चार शरीरवालोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहुर्त कहा है। और जो जीव अग्निकायिक पर्याप्त और वायुकायिक पर्याप्त अवस्थाको छोडकर अनंत काल तक निरंतर एकेन्द्रियोंमें परिभ्रमण करता रहता है उसके इतने काल तक चार शरीरकी उत्पत्ति नहीं होती, इसलिए एक जीवको अपेक्षा चार शरीरवालोंका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त कालप्रमाण कहा है। ___ आदेशसे गति मागंणाके अनुवादसे नरकगति की अपेक्षा नारकियोंमें दो शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चौबीस महतं है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। तीन शरीरवालोंका अन्त कितना है ? नाना जीव और एक जोवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। पहली पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें दो शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है। नाना जीवोंकी अपेक्षा सब पृथिवीयोंमें जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पहली पृथिवीमें अडतालीस महतं, दूसरी पृथिवी में एक पक्ष, तीसरी पृथिवीमें एक मास, चौथी पृथिवीमें दो मास, पाँचवीं पृथिवी में चार मास, छटी पृथिवीमें छह मास और सातवीं पृथिवीमें बारह मास है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर काल नहीं है निरन्तर है। तीन शरीरवालोंका नाना और एक जीव _Jain Education no प्रतिषु 'णिरतरं ] बिसरीराण-' इति पाठः । sonal use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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