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________________ छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ६, १६३ समत्ताणुवादेण समाइट्ठी खइयसम्माइट्टी वेदगसम्म इट्टी उवसमसम्माइट्ठी सासणसम्माइट्ठी मिच्छाइट्ठी ओघं ॥ १६३ ॥ विसरीर - तिसरीर - चदुसरीरत्तणेण भेदाभावादो । सम्मामिच्छाइट्ठीणं मणजोगिभंगो ॥ ॥ १६४ ॥ अपज्जत्तकाले सम्मामिच्छत्ताभावादो । सणियाणुवादेण सणणी असणणी ओघं ॥ १६५ ॥ सुगमं । आहाराणुवादेण आहारामणजोगि भंगो ॥ १६६ ॥ सुगमं । २४८) अाहारा कम्मइयभंगो ॥ १६७॥ एदं पि सुगमं । एवं संतपरूवणा समत्ता । एदमणियोगद्दारं सेस छष्णमणियोगद्दाराणं जेण आसेयं ते ते सिमेत्थ परूवणा सम्यक्त्व मार्गणा अनुवादसे सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि जीवों में ओघ के समान भग्न है ॥ १६३॥ क्योंकि दो शरीर, तीन शरीर और चार शरीरपनेकी अपेक्षा ओघसे इनमें कोई भेद नहीं है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें मनोयोगी जीवोंके समान भग्न है || १६४॥ क्योंकि अपर्याप्त कालमें सम्यग्मिथ्यात्वका अभाव है । संज्ञीमार्गणा अनुवादसे संज्ञी असंज्ञो जीवोंमें ओघके समान भग्न है ॥ १६५ ॥ यह सूत्र सुगम है । आहार मार्गणा अनुवादसे आहारक जीवोंमें मनोयोगी जीवोंके समान भंग है ।। १६६ ॥ यह सूत्र सुगम है । अनाहारक जीवों में कार्मणकाययोगी जीवोंके समान भंग है ॥१६७॥ यह सूत्र भी सुगम है । इस प्रकार सत्प्ररूपणा समाप्त हुई । यतः यह अनुयोगद्धार शेष छह अनुयोगद्वारोंका आश्रय है, इसलिए उनकी यहां पर म० प्रतिपाठोऽयम् । ता०प्रतौ ' असेयं (आसिपं) तेण' अप्रतौ 'आसियं तेण' इति पाठः । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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