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________________ ५, ६, ९१. ) बंधाणुयोगद्दारे पत्तेयसरीरदव्ववग्गणा ( ६७ तद्वाणं होदि । एवमे गंगुत्तरपरमाणुवड्ढीए वड्ढावेदव्वं जाव ओरालिय सरीरविस्ससोवचयपुंजम्मि सव्वजीवेहि अनंतगुणमेत्ता परमाणू वडिदा त्ति । एवं वड्डाविदे ओरालिय- सरीरविस्ससोवचयपुंजम्मि सव्वजीवेहि अनंतगुणमेत्ताणि अपुनरुत्तट्टाणाणि लद्धाणि भवंति । एसा द्वाणपरूवणा संभवं पडुच्च कोरदे । को संभवो णाम? इंदो मेहं पल्लट्टेदुं समत्यो त्ति एसो संभवो णाम । वत्तिसरूवेण एत्तिएस ट्ठाणेसु समुपणे को दोसो होदि ? ण, सव्वजीवरासीदो सिद्धाणमणंतगुणत्तप्पसंगादो। ण चुप्पण्णट्ठाणमेत्ता सिद्धा अस्थि ; अदीदकालस्स असंखेज्जदिभागाणं सिद्धाणं द्वाणमेत्तपमाणत्तविरोहादो । पुणो अणे जीवे खविदकम्मं सियलक्खणेणागंतूण सव्वजहण्णवत्तेयसरीरवग्गणाए उवरि विस्ससोवचएण सह एगपरमाणुणा ओरालियसरीरमब्भहियं कादूणच्छिदे एवं पि अपुणरुत्तट्ठाणं होदि । कुदो? परमाणुत्तरकमेण पुव्वं वड्डाविदओरालियस रविस्ससोवचयपुंजेण सह संपहि अहियएगोरालियसरीरपरमाणुदंसणादो । पुव्वत्तोरालियमशेर- सव्वजहण्णपरमाणुपुंजादो संपहियओरालियसरीरपरमाणुपुंजो परमाणुत्तरो होदि । पुणो पुव्विल्लक्खवगं मोत्तूण संपहियखवगं घेत्तूण एदस्स ओरालियसरी रविस्ससोवचयपुंजम्मि परमाणुत्तर- दुपरमाणुत्तरादिकमेण सव्वजीवेहि अनंतगुणमेत्तेसु पुद्गलोंके बढनेपर पाँचवां अपुनरुक्त स्थान होता है। इसप्रकार औदारिकशरीर के विस्रसोपचयपुंजमें सब जीवोंसे अनन्तगुणे परमाणुओंकी वृद्धि होनेतक उत्तरोत्तर एक एक परमाणुकी वृद्धि करनी चाहिए । इस प्रकार वृद्धि करनेपर औदारिकशरीरके विस्रसोपचय पुंज में सब जीवोंसे अनन्तगुणे अपुनरुक्त स्थान उपलब्ध होते हैं । यह स्थानप्ररूपणा सम्भव सत्यकी अपेक्षा की है । शंका -- सम्भवसत्य किसे कहते हैं ? समाधान-- ' इन्द्र मेरुको पलटने में समर्थ है । ' इसे सम्भव कहते हैं । शंका-- व्यक्तरूपसे इतने स्थानोंके उत्पन्न होनेपर क्या दोष उत्पन्न होता है ? समाधान-- •नहीं, क्योंकि, ऐसा होनेपर सब जीवोंसे सिद्ध अनन्तगुणे प्राप्त होते हैं । परन्तु यहाँ जितने स्थान उत्पन्न किये गये हैं उतने सिद्ध हैं नहीं, क्योंकि, सिद्ध अतीत कालके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं, इसलिए उन्हें उक्तस्थानप्रमाण माननेमें विरोध आता है । पुनः क्षपित कर्माशिविधिसे आकर सबसे जघन्य प्रत्येकशरीर वर्गणा के ऊपर विस्रसोपचयसहित एक परमाणुसे औदारिकशरीरको अधिक करके अन्य एक जीवके स्थित होनेपर यह अरु स्थान होता है, क्योंकि, उत्तरोत्तर एक परमाणुके क्रमसे पहले बढ़ाए हुए औदारिकशरीर विस्रसोपचय पुंजके साथ इस समय औदारिकशरीरका एक परमाणु अधिक देखा जाता है । पूर्वोक्त औदारिकशरीर के सबसे जघन्य परमाणुपुंजकी अपेक्षा साम्प्रतिक औदारिकशरीर परमाणुपुंज एक परमाणु अधिक है । पुनः पूर्वोक्त क्षपकको छोडकर और साम्प्रतिक क्षपकको ग्रहणकर इसके औदारिकशरीर विस्रसोपचय पुंज में एक परमाणु अधिक, दो परमाणु अधिक आदिके क्रम से ता. प्रती 'द्वाणमेव (त्त ) - ' अ प्रती 'द्वाणमेव - ' इति पाठ: । ता. प्रतो' अण्णो जीवो' इति पाठः । आ. प्रतौ ' -जहण्णपुंजादो ' इति पाठ: 1 ता. आ प्रत्योः '-पुंजम्मि परमाणुत्तरादि-' इति पाठः । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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