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________________ छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ६, ९१. ऊणियं कम्मदिदि विद कम्मंसियलक्खणेण अच्छिदो। पुणो पलिदोवमस्स असंखे. ज्जदिमागमेताणि संजमासंजमकडयाणि ततो विसेसाहियाणि सम्मत्त-अणंताणुबंधि. विसंजोयणकंडयाणि अट्ठसंजमकंड याणि चदुक्खुत्तो कसाय-उवसामणं च कादूण पुणो अपच्छिमे भवग्गहणे पुत्रकोडाउएसु मणुसेसु उववण्णो। तदो गणिक्खमणादिअ. टुवस्संतोमुत्तमहियाणमवरि सम्मत्तं संजमं च जुगवं घेतण* सजोगिजि गो जादो। तदो देसूणपुवकोडि सव्वमोरालिय-तेजइयसरीराणं अदिदिगलणाए णिज्जरं करिय कम्मइयसरीरस्स गणसे ढिणिज्जरं कादूण चरिमसमयभवसिद्धियो जादो । एवंविहलक्खणेणागदअजोगिचरिमसमए सव्वजहणिया पत्तेयसरीरवग्गणा होदि; एदस्स देहे णिगोदजीवाणमभावादो। संपहि एदिस्से वग्गणाए माहप्पज्जाणावणठंडाणपरूवणं कस्सामो। तं जहा- ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीरपरमाणणं तिणि पुंजे उवरि दृविय तेसि हेवा तेसि चेव विस्ससोरचयपुंजे च टुविय पुणो एदेसि छण्णं जहण्णपुंजाणमवरि परमाणुवड्ढावणविहाणं वुच्चदे- खविदकम्मंसियलक्खणेणागदस्त चरिमसमयभवसिद्धियस्त ओरालियसरीरविस्ससोवचयपुंजम्मि एगविस्ससोवचयपरमाणुम्हि वडिदे तमण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि। पुणो तत्थेवरी दोसुपरमाणुसु वड्डिदेसु तदियमपुणरुत टाणं होदि। तिसु परमाणुसु वड्डिदेसु चउत्थमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । चदुसु विस्ससोवचयपरमाणुपोग्गलेसु वड्डिदेसु पंचममपुण. कालतक क्षपित कर्माशिकरूपसे रहा । पुन: जिसने पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण संयमासयम - काण्डक, इनसे कुछ अधिक सम्यक्त्वकाण्डक तथा अनन्तानुबन्धीके विसंयोजनाकाण्डक तथा आठ संयमकाण्डक करते हुए चारबार कषायकी उपशामना की। पुनः अन्तिम भवको ग्रहण करते हुए पूर्वकोटिप्रमाण आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ । अनन्तर गर्भनिष्क्रमण कालसे लेकर आठ वर्ष और अन्तर्मुहुर्तका होनेपर सम्यक्त्व' और संयमको एकसाथ प्राप्त करके सयोगी जिन हो गया। अनन्तर कुछ कम पूर्वकोटि कालतक औदारिक और तैजसशरीरकी अधःस्थितिगलनाके द्वारा पूरी निर्जरा करके तथा कार्मणशरीरकी गुणश्रेणिनिर्जरा करके अन्तिम समयवर्ती भव्य हो गया । इस प्रकार आकर जो अयोगीकेवलीके अन्तिम समय में स्थित है उसके सबसे जघन्य प्रत्येकशरीर द्रव्यवर्गणा होती है, क्योंकि, इसके शरीरमें निगोद जीवोंका अभाव है। अब इस वर्गणाके माहात्म्यका ज्ञान कराने के लिए स्थानप्ररूपणा करते हैं। यथा- औदारिकशरीर, तैजसशरीर और कार्मणशरीरके परमाणुओंके तीन पुञ्ज ऊपर स्थापित करके और उनके पहले ही विस्रसोपचयोंके पुज स्थापित करके फिर इन जघन्य छह पुञ्जोंके ऊपर परमाणुओंके बढानेकी विधि कहते हैं । क्षपितकर्माशिकविधिसे आकर जो अन्तिम समयवर्ती भव्य हुआ है उसके औदारिकशरीरके विस्र सोपचय पुञ्ज में एक विस्रसोपचय परमाणुके बढनेपर वह अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है । पुनः उसी में दो परमाणुओंके बढनेपर तीसरा अधुनरुक्त स्थान होता है। तीन परमाणुओंके बढनेपर चौथा अपुनरुक्त स्थान होता है। चार विस्रसोपचय परमाणु ४ अ. प्रतो ' कम्मढिदि (बधिय-) खविद- इति पाठः। * ता . प्रतो '-जुगवं घेत्तूण ' इति स्थाने 'घेत्तूण जुगवं ' इति पाठः) ता. प्रतो. 'तत्थ ' इति पाउ:1 * अ. प्रतौ ' तदियपुणरुत्त , इति पाठः1 . आ. प्रतो । तमामपूणहत्तट्राणं होदि 1 तिस्' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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