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________________ ६८ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५.६, ९१. विस्ससोवचयपरमाणुपोग्गलेसु वड्ढिदेसु सव्वजीवेहि अनंतगुणमेत्ताणि चेव अपुणरुत्तद्वाणानि लब्भंति । तदो अण्णे जीवे खविदकम्मं सियलक्खणेणागंतून सव्वजहणेण ओरालियसरीरपुंजं दुपरमाणुत्तरं काढूण तस्सेव विस्ससोवचयपुंजं पि दोष्णं परमाणूणं विस्सासुवचयपुंजे अहियं काढूणच्छिदे अनंतरहेट्ठिमट्ठाणादो संपहियद्वाणं परमाणुत्तरं होदि । कारणं पुव्वं व जाणिदूण वत्तव्वं । संपहि उप्पण्णद्वाणस्त्र ओरालियस रोरविस्सासुवचयपुंजम्मि एगपरमाणुपोग्गले वड्ढिद्दे अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । एवं दो- तिणिआदि जाव सजीवेहि अनंतगुणमेत्तओरालियविस्सुवचयपरमाणुपोग्गलेसु वड्ढि - देसु अाणि अपुणरुत्तट्ठाणाणि लब्धंति । तदो अण्णे जीवे खविदकम्मं सिय सव्वजहष्णोरालियसरीरं तिपरमाणुत्तरं कादूण सव्वजहष्णोरालिय सरीरविस्स सुवचयपुंजं तिष्णं परमाणूणं विस्ससोवचएहि अहियं काणच्छिदे अनंत रहेट्टिमट्टाणादो एगवारेण वढवणागदं संपहियद्वाणं परमाणुत्तरं । एवमणेण विहाणेण ओरालियसरीरदोपुंजा वढावेदव्वा जावप्पप्पणी तप्पा ओग्गउक्कस्तदव्वपमाणं पत्ता त्ति । णवरि तेजा कम्मइयसरीराणि सव्वजहण्णाणि देव । एदेसि चदुष्णं वड्ढीए विना सविस्ससोवचयओरालियसरीरस्सेव कथं वुड्ढी होदि ? ण, तज्जहण्णाविरोहिउक्कस्सवुड्ढीए एत्थ गहणादो । सब जीवोंसे अनन्तगुणे विस्रसोपचय परमाणु पुद्गलोंके बढ़नेपर सब जीवोंसे अनन्तगुणे ही अपुनरुक्त स्थान उपलब्ध होते हैं । पुनः क्षपित कर्माशिक विधिसे आकर सबसे जघन्य औदारिकशरीर पुंजको दो परमाणु अधिक करके तथा उसीके विस्रसोपचय पुंजको भी विस्रसोपचय पुंजकी अपेक्षा दो परमाणु अधिक करके अन्य जीवके स्थित होनेपर अनन्तर पिछले स्थानसे साम्प्रतिक स्थान एक परमाणु अधिक होता है । कारण पहलेके समान जान कर कहना चाहिए। अब इस समय उत्पन्न हुए स्थानके औदारिकशरीर विस्रसोपचय पुंज में एक परमाणु पुद्गल के बढ़नेपर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है । इस प्रकार दो, तीनसे लेकर सब जीवोंसे अनन्तगुणे औदारिक विस्रसोपचय परमाणु पुद्गलोंके बढ़नेपर अनन्त अपुनरुक्त स्थान उपलब्ध होते हैं । अनन्तर क्षपित कर्माशिकरूपसे प्राप्त सबसे जघन्य औदारिकशरीर पुंजको तीन परमाणु अधिक करके तथा सबसे जघन्य विस्रसोपचय पुंज में विस्रसोपचयके तीन परमाणु अधिक करके स्थित हुए अन्य जीवके अनन्तर पिछले स्थानसे एकबार वृद्धि हो कर प्राप्त हुआ साम्प्रतिक स्थान एक परमाणु अधिक होता है । इस प्रकार इस विधि से अपने-अपने तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट द्रव्य के प्रमाणके प्राप्त होने तक औदारिकशरीरके दो पुंज बढाने चाहिये । इतनी विशेषता है कि इन सब स्थानोंमें तैजस और कार्मणशरीर सबसे जघन्य रहते हैं । शंका- इन चारों ( तैजस और कार्मणशरीर तथा उनके विस्रसोपचय ) की वृद्धि हुए बिना अपने विसोपचय सहित औदारिकशरीरकी ही वृद्धि कैसे होती है ? ता० प्रतौ एगपरमाणुत्तरपोग्गले * ता० प्रतौ ' णे ( ए ) वभणेण ' Jain Education International ' इति पाठः । * अ० प्रती अ० आ० प्रत्योः ' जवमणेण 7 For Private & Personal Use Only पुंजम्मि ' इति पाठः । इति पाठः | www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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