SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 403
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७०) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ६, ३३१ जहण्णपदेण ओरालियसरीरस्स जहणियाए ठ्ठिदीए पदेसगं सम्वपदेसग्गस्स केवडियो भागो ॥३३॥ एदं पुच्छासुतं संखेज्जदिभागो असंखे*० भाग-अणंतिमभागे अवेक्खदेछ । असंखेज्जदिभागो ॥३३२॥ कुदो ? एगसमयपबद्धे दिवगणहाणीए खंडिदेगखंडपमाणत्तादो। सव्वपदेसग्गस्स त्ति वृत्ते एगसमयपबद्धो चेव घेप्पदि । तिसु पलिदोवमेसु संचिदवव्वं ण घेप्पदि त्ति कथं णव्वदे ? अविद्धाइरियवयणादो । एत्थ दिवगणहाणिपमाणमंतोमुहुत्तं, ओरालियसरीरम्मि अंतोमहत्तं गंतूण पढमणिसेगादो दुगुणहीणणिसेगवलंभादो। एत्थ कि तिण्णं पलिदोवमाणं पढमसमए पदिदणिसेयपदेसग्गं घेप्पदि आहो जहण्णणिव्यत्तीए पढमसमए पदिदपदेसग्गमिदि? एत्थ पढमपक्खो घेत्तवो, उक्कस्सणिसेगटिवीए जहण्णटिदिपदेसग्गेण अहियारादो। एवं चदुष्णं सरीराणं ।:३३३॥ जघन्यपदकी अपेक्षा औदारिकशरीरको जघन्य स्थितिका प्रदेशाग्र सब प्रदेशाग्र के कितने भागप्रामण है ? ॥३३॥ ___ यह पृच्छासूत्र संख्यातवें भागप्रमाण है, असंख्यातवें भागप्रमाण है या अनन्तवें भागप्रमाण है इस बातकी अपेक्षा करता है। असंख्यातवें भागप्रमाण है ॥३३२।। क्योंकि, एक समयप्रबद्ध में डेढ़ गुणहानिका भाग देने पर जो एक भाग लब्ध आवे उतना उसका प्रमाण है । 'सव्वपदेसग्गस्स'ऐसा कहने पर समयप्रबद्धका ही ग्रहण होता है । शंका--तीन पल्यप्रमाण काल के भीतर संचित हुए द्रव्यका ग्रहण नहीं होता है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान--अविरुद्ध आचार्यवचनसे जाना जाता है। यहाँ पर डेढ़ गुणहानिका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि,, औदारिकशरीरमें अन्तर्मुहूर्त जाकर प्रथम निषेकसे दुगुने हीन निषेक उपलब्ध होते हैं । शंका---यहाँ पर क्या तीन पल्यों के प्रथम समयमं प्राप्त हुए निषेकका प्रदेशाग्र ग्रहण करते हैं या जघन्य निर्वृत्तिके प्रथम समयमें प्राप्त हुआ प्रदेशाग्र ग्रहण करते हैं ? समाधान--यहाँ पर प्रथम पक्षको ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि, उत्कृष्ट निषेकस्थितिमें जघन्य स्थितिके प्रदेशाग्रका अधिकार है। इसी प्रकार चार शरीरोंका भागाभाग कहना चाहिए ॥३३३॥ *ता. प्रतो 'संखेज्जदिभागो (ग) असंखे० ' अ. का. प्रत्यो। 'संखेज्जदिभागो असंखे० ' इति पाठ।। ता० प्रती 'उ (अ) अवेक्खदे ' अ. का. प्रत्यो। उक्खदे' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy