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________________ ५, ६, ३३५ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए पदेसविरओ (१७१ जहा ओरालियसरीरस्स जहण्णपडिभागाभागो परविदो तहा एदेसि परूवेदव्वो, अंतोमुत्तमेत्तदिवड्डगुणहाणीए एगसमयपबद्धं खंडिय तत्थ एगखंडपमाणत्तणेण भेवाभावादो। णवरि तेजा-कम्मइयसरीराण दिवगणहाणिपमाणमसंखेज्जाणि पलि. दोषमाणि पढमवग्गमूलाणि । कम्मइयसरीरस्स सत्तवाससहस्साणि आबाधं मोत्तूण तवणंतरउरिमदिदीए जं पदेसगं णिसित्तं तस्स गहणं कायव्वं । पढमणिसेयपमाणेण सव्वदव्वे कीरमाणे जहा वेयणाए परूवणा कदा तहा कायव्वा, पंचसु वि सरीरेसु* पढमणिसेयपमाणेण कीरमाणेसु भेदाभावादो। उक्कस्सपदेण ओरालियसरीरस्स उक्कस्सियाए ठिठदीए पदेसग्गं सवपदेसग्गस्स केवडिओ भागो ॥३३४॥ सुगमं । असंखेज्जदिभागो ॥३३५॥ तिषणं पलिदोवमाणं पढमसमयप्पहुडि एगसमयपबद्धे जहाकमेण णिसिंचमाणे तिणं* पलिदोवमाणं चरिमसमए जं णिसितं पदेसगं तमुक्कस्सट्रिदिपदेसागर णाम । तं सवद्विदिपदेसग्गाणमसंखे०भागो। तस्स को पडिभागो? असंखेज्जा लोगा। तं जिस प्रकार औदारिकशरीरका जघन्य पदकी अपेक्षा भागाभाग कहा है उसी प्रकार इन शरीरोंका भी कहना चाहिए ; क्योंकि, अन्तर्मुहूर्तप्रमाण डेढ गुणहानिका एक समयप्रबद्ध में भाग देने पर वहाँ एक खण्डप्रमाणपनेकी अपेक्षा कोई भेद नहीं है। इतनी विशेषता है कि तेजसशरीर और कार्मणशरीरको डेढ़ गुणहानिका प्रमाण पल्यके असंख्यात प्रथमवर्गमूलप्रमाण है । तथा कार्मणशरीरकी सात हजार वर्षप्रमाण आबाधाको छोडकर तदनन्तर उपरिम स्थिति में जो प्रदेशाग्न निषिक्त है उसका ग्रहण करना चाहिए । प्रथम निषेकके प्रमाणसे सब द्रव्यके करने पर जिस प्रकार वेदना अनुयोगद्वारमें प्ररूपणा की है उस प्रकार करनी चाहिए,क्योंकि, पाँचों ही शरीरोंको प्रथम निषेकके प्रमाण रूप करने पर उस कथनसे इसमें कोई भेद नहीं है। उत्कृष्ट पदकी अपेक्षा औदारिकशरीरको उत्कृष्ट स्थितिका प्रदेशाग्र सब प्रवेशान के कितने भागप्रमाण है । ३३४॥ यह सूत्र सुगम है। असंख्यातवें भागप्रमाण है ॥३३५॥ तीन पल्योंके समयसे लेकर एक समयप्रबद्ध के क्रमसे निक्षिप्त होने पर तीन पल्यों के अन्तिम समय में जो प्रदेशाग्र निक्षिप्त होता है उसकी उत्कृष्ट स्थितिप्रदेशाग्र संज्ञा है। वह सब स्थितियों में प्राप्त प्रदेशाग्रोंके असंख्यातवें भागप्रमाण है। उसका प्रतिभाग क्या है ? असंख्यात * म०प्रतिपाठोऽयम् । प्रतिषु ' पचसु सरीरेसु' इति पाठः। * तातो 'fणसिंचमाणं तिण्णं । इति पाठः । ता०प्रती 'उकस्सरदेसट्रिदिपदेसगं' अ०प्रती ' उक्कस्सहिट्रिदिपदेसग्गं ' इति पाठ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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