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________________ ( २३ ५, ६, २१. ) बंधणाणुयोगद्दारे दव्वबंधपरूवणा तेसि विवागपच्चइओ अजीवभावबंधो त्ति सण्णा । जे अजीवभावा मिच्छत्तादिकारहि विणा समप्पण्णा तेसिमविवागपच्चइओ अजीवभावबंधो त्ति सण्णा । जे दोहि वि कारणेहि समप्पण्णा तेसि तदुभयपच्चइयो अजीवभावबंधो त्ति सण्णा । एवं तिविहो चेव अजीवभावबंधो होदि, अण्णस्स असंभवादो। जो सो विवागपच्चइयो अजीवभावबंधो णाम तस्स इमो गिद्देसो-पओगपरिणदा वण्णा पओगपरिणदा सद्दा पओगपरिणदा गंधा पओगपरिणदा रसा पओगपरिणदा फासा पओगपरिणदा गदी पओगपरिणदा ओगाहणा पओगपरिणदा संठाणा पओगपरिणवा खंधा पओगपरिणदा संधदेसा पओगपरिणदा संधपदेसा जे चामण्णे एवमादिया पओगपरिणदसंजत्ता भावा सो सम्वों विवागपच्चइओं अजीवभावबंधों णाम ॥ २१ ॥ वणणामकम्मोदएण ओरालियसरीरखंधेसु जादवण्णा पओगपरिणवा णाम, उनकी विपाकप्रत्ययिक अजीवभावबन्ध यह संज्ञा है। जो अजीवभाव मिथ्यात्व आदि कारणोंके बिना उत्पन्न होते हैं उनकी अविपाकप्रत्ययिक अजीवभावबन्ध यह संज्ञा है । और जो दीनों ही कारणोंसे उत्पन्न होते है उनकी तदुभयप्रत्ययिक अजीवभावबन्ध यह संज्ञा है । इस तरह तीन प्रकारका ही अजीवभावबन्ध होता है, क्योंकि, इनके सिवा अन्य अजीवभावबन्ध सम्भव नहीं है। विशेषार्थ-यहाँ जीवभावबन्ध के समान अजीवभावबन्ध भी तीन प्रकारका बतलाया गया है । यहाँ विपाकसे पुरुषका प्रयत्न या उसके मिथ्यात्व आदि भाव लिये गये हैं । इनके निमित्तसे पुद्गलकी जो रूप रसादि पर्याय या दूसरी अवस्थायें होती हैं वे विपाकप्रत्ययिक अजीवभावबन्ध कहलाते हैं। जो पुरुषके प्रयत्नके बिना पुद्गल के बन्धरूप विविध प्रकारके परिणमन होते हैं वे अविपाकप्रत्ययिक अजीवभावबन्ध कहलाते हैं और तदुभय इन दोनोंरूप होते हैं। यह उक्त कथनका सार है। ___ जो विपाकप्रत्ययिक अजीवभावबन्ध होता है उसका निर्देश इस प्रकार है-- प्रयोगपरिणत वर्ण, प्रयोगपरिणत शब्द, प्रयोगपरिणत गन्ध, प्रयोगपरिणत रस, प्रयोगपरिणत स्पर्श, प्रयोगपरिणत गति, प्रयोगपरिणत अवगाहना, प्रयोगपरिणत संस्थान, प्रयोगपरिणत स्कन्ध, प्रयोगपरिणत स्कन्धदेश और प्रयोगपरिणत स्कन्धप्रदेश ; ये और इनसे लेकर जो दूसरे भी प्रयोगपरिणत संयुक्त भाव होते हैं वह सब विपाकप्रत्ययिक अजीवभावबन्ध है ॥ २१ ॥ वर्ण नामकर्म के उदयसे औदारिकशरीरके स्कन्धोंमें उत्पन्न हुए वर्ण प्रयोगपरिणत वर्ण हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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